विपरीत राजयोग
विपरीत राजयोग का रहस्य :-
Dr.R.B.Dhawan
ऐसा क्या रहस्य है, विपरीत राजयोग में की त्रिक (पाप स्थान के स्वामी) ग्रह भी शुभ फल देने लगते हैं, न केवल शुभफल अपितु अनेकों प्रकार के कष्ट फल भी हर लेते हैं। वस्तुत: कुंडली में त्रिक अर्थात् 6, 8, 12. स्थान तथा इन्हीं स्थानों के स्वामी ग्रह अशुभ फल की सूचना देने वाले होते हैं, परंतु इस योग के संबध मे कालीदास के उत्तरकालामृत मे कहा है, यदि त्रिक स्थान के स्वामी त्रिक (6,8,12 स्थान) में ही स्थित हों, अर्थात् 6 भाव का स्वामी 6,8,12 में, या 8 भाव का स्वामी 6,8,12 में, अथवा 12 भाव का स्वामी 6,8,12 भाव में (इनमें कोई एक या अधिक) ग्रह ये योग बना रहे हों तो, जातक वैभवशाली राजराजेश्वर होता है।
रंध्रेशो अयषष्टगो रिपुपतौ रंध्रे व्यये वा स्थिते,
रिःफेशोऽपि तथैव रंध्ररिपुभे यस्यस्ति तस्मिन्वदेत।
अन्योन्यर्क्षगता निरीक्षणयुताश्चन्यैरयुक्ते क्षिता
जातोऽसौ नृपतिः प्रशस्तविभवो राजाधिराजेश्वरः ।।
(उत्तरकालामृत 4/22)
अर्थात:- अष्टमेश यदि व्यय अथवा षष्ठ स्थानों मे से किसी भी स्थान में हो, षष्ठेश यदि अष्टम अथवा व्यय मे हो , व्ययेश यदि षष्ठ या अष्टम भाव मे हो साथ ही इन दुःस्थानो के अधिपतियो का युति, दृष्टि अथवा परस्पर परिवर्तन का संबंध हो, लेकिन अन्य किसी ग्रह से युति या दृष्टि द्वारा संबध न हो तो जातक वैभवशाली राजराजेश्वर होता है।
आईये इस योग के रहस्य को उद्धारण से समझें :- षष्ठ स्थान मुख्यत: रोग, शत्रु और कर्ज का स्थान है, इस स्थान में यदि छिद्र ग्रह (किसी वस्तु या सुख को नष्ट करने वाला) आ बैठेगा तो किसे नष्ट करेगा? स्वाभाविक है रोग, शत्रु और कर्ज को ही नष्ट करेगा। जब कुण्डली में एक अशुभ ग्रह ही दूसरे अशुभ को नष्ट कर रहा है तो जातक के लिए सफलता में बाधायें समाप्त हो कर उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। यही राजयोग है, जो आशा से विपरीत (निराशा को दूर करके) राजयोग का निर्माण करता है। इसी प्रकार अष्टम और द्वादश के स्वामी भी अपना फल प्रगट करते हैं, और अलग तरह का विपरीत राजयोग बनाते हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि ऐसी स्थिति में अष्टमेश आदि ग्रहों के द्वारा दरिद्रता, अभाव आदि दुर्गुणों का नाश होने से विपरीत रूप से धन आदि की प्राप्ति होती है ।
उत्तरकालामृत मे आगे कहा गया है कि –
पापाः नीचगताः शुभा बलयुताः केन्द्रत्रिकोणस्थिताः
खेटाः स्युर्यदि कर्मभाग्यगृहपा भाग्येऽथवा कर्मणि।
राजा स्यान्मतिमान्महाधनयुतः ख्यातः प्रतापान्वितो
दीर्घायुः परभूपवन्दितपदः सर्वज्ञतुल्यः सुधीः।।
अर्थात:- जन्मांग मे पापी ग्रह नीच राशि में हो (अर्थात निर्बल हों) और शुभ ग्रह केन्द्र त्रिकोण स्थानो मे बलवान हों, और दशम, नवम, तथा चतुर्थ भावों के स्वामी नवम या दशम भाव में संयुक्त रूप से स्थित हों तो वह व्यक्ति बुद्धिमान, महाधनी, यशस्वी, प्रतापी, दीर्घायु, सर्वज्ञतुल्य महाराजा होता है।
कुण्डली मे जो ग्रह किसी विशेष अशुभ फल को द्योतित कर रहे हों तो, वे अपना पूरा अशुभ फल तभी प्रदान करेंगे जब वे बली होगे। जब शुभ ग्रह बली हो, तभी वे शुभ फल को पूर्ण मात्रा मे प्रदान करे सकेंगे। अशुभ फलदाता ग्रह जब निर्बल होगे तो, वे अपना अशुभ फल कैसे प्रदान करेंगे? जब अशुभ फल न्यूनतम होगा तो, शुभ फल में वृद्धि होगी। इसी सिद्धांत के आधार पर उत्तरकालामृतकार ने कहा है कि –
अशुभ फलदाता ग्रह जब स्वयं दुष्ट भावों मे होंगे तो, उनका अशुभ फल नष्ट होकर मनुष्य के भाग्य में वृद्धि करेगा।
विपरीत राजयोग के सम्बन्ध में नियम है कि:- 6,8,12 के स्वामी जहाँ स्थित होते हैं, उस अधिष्ठित भाव के फल की हानि करते हैं। इसी प्रकार जिन भावों के स्वामी 6,8,12 में स्थित होते हैं, उन भावों के फलों का ह्रास हो जाता है। यही इस विपरीत राजयोग का आधार है । भाव 6,8,12 के स्वामी यदि इन्ही स्थानो मे क्षेत्र सम्बन्धी होकर स्थित हों तो, परस्पर एक दूसरे के भावों की हानि कर राजयोग का निर्माण करेंगे। यदि ये तीनो भावाधिपति अपने-अपने स्थान मे स्थित होंगे तो, यह योग नही निर्मित होगा।
विपरीत राजयोग का रहस्य :- Dr.R.B.Dhawan ऐसा क्या रहस्य है, विपरीत राजयोग में की त्रिक (पाप स्थान के स्वामी) ग्रह भी शुभ फल देने लगते हैं, न केवल शुभफल अपितु अनेकों प्रकार के कष्ट फल भी हर लेते हैं। वस्तुत: कुंडली में त्रिक अर्थात् 6, 8, 12. स्थान तथा इन्हीं स्थानों के स्वामी ग्रह अशुभ…