कुंडली विश्लेषण
कुंडली विश्लेषण करते समय ध्यान दें :-
Dr.R.B.Dhawan
कुंडली का विश्लेषण करते समय तीन महत्वपूर्ण तथ्यों को कभी नजर अंदाज नहीं करना चाहिए, वे तीन तथ्य हैं:- जातक की मानसिक वृत्ति, शारीरिक वृत्ति, और आत्मिक वृत्ति। वस्तुत: कोई भी जातक जीवन में तीन प्रकार से कर्म करता है, और तीन ही प्रकार की प्रकृति से प्रभावित भी होता है। कुंडली में इन तथ्यों को प्रकाशित करती हैं यह तीन वृतियां, 1. शारीरिक वृत्ति, इस के लिए लग्न कुंडली देखेें। 2. मानसिक वृत्ति, इस के लिए चन्द्र कुंडली देखें, और 3. आत्मिक वृत्ति के लिए सूर्य कुंडली देखना चाहिए। इस नियम का समर्थन करते हुए वृहत पाराशर होरा शास्त्र में इन तीनों कुण्डलीयों को एक स्थान पर अंकित किया गया है, फलादेश के इस उपकरण को “सुदर्शन चक्र पद्धति” कहा गया है। अत: सुदर्शन चक्र द्वारा उपरोक्त तीनों तथ्यों पर ध्यान देते हुए फलादेश करना चाहिए, ये तीन और भी कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों जैसे – सभी ग्रहों की स्थिति, डिग्री, दृष्टि, गति, नवांश और चलित की स्थिति आदि को अवश्य ही ध्यान में रखते हुए फलादेश करना चाहिए।
ज्योतिष शास्त्र मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, और अपरा तथा परा विद्याओं को जोड़ने वाले पुल की तरह कार्य करता है।
इस शास्त्र से हम जातक के प्रारब्ध के बारे में जान सकते हैं। हर व्यक्ति का जन्म उसके संचित कर्मों के अनुसार ही होता है, और इन्हीं संचित कर्मों से ही इस जन्म के लिऐ प्रारब्ध बनती है, और इसी प्रारब्ध के अनुसार ही अगला जन्म होता है।
ज्योतिष शास्त्र जो खगोलीय के ज्ञान पर आधारित है, बेशक जातक के भविष्य कथन में बहुत अधिक सहायक सिद्ध नहीं होता है, परंतु इस शास्त्र के अतिरिक्त और इस से अधिक भविष्य जानने की विद्या भी मनुष्य के पास नहीं है। वस्तुत: यह एक संभावनाओं का शास्त्र है। ज्योतिष विज्ञान के माध्यम से जातक के लिए भविष्य में उपलब्ध संभावनाओं का पता अवश्य लगता है, और साथ-साथ कर्म भी करने पड़ते हैं, क्यों कि कर्म का अपना परिणाम (फल) होता है। कुंडली के ग्रह जो सूचना देते हैं या कुण्डली जिन संभावनाओं का संकेत देती हैं, यदि उसी दिशा में कर्म किसे जायेंगे तो, परिणाम सकारात्मक या अनुकूल ही होते हैं। अर्थात् प्रारब्ध (भाग्य) और कर्म दोनों मिलकर एक परिणाम प्रकट करते हैं। कुंडली प्रारब्ध (संभावना) हैं, और कर्म कैसे किसे हैं, या किये जायेंगे? दोनों का ज्ञान एक भविष्यवक्ता को होना चाहिए तभी वह ठीक-ठीक भविष्यवाणी कर सकता है। इसी लिए भविष्यवाणी पूर्ण सत्यता से करना असंभव तो नहीं पर काफी कठिन अवश्य है। जहां एक ओर कुंडली में ग्रहों की स्थिति दृष्टि, दशा, गोचर आदि के आधार पर भविष्यवाणी की जाती है, वहीं ज्योतिषी को अपने अंतर्ज्ञान तथा ईश्वरीय शक्ति का सहयोग भी महत्वपूर्ण है। कुछ ज्योतिषी केवल कुंडली से ही देख कर बता देते हैं तो कुछ कुंडली के प्रत्येक पहलू को अच्छी तरह परख कर बताते हैं। अलग-अलग ज्योतिषियों के भविष्य कथन में भी बहुत अंतर होता है, क्योंकि उनके अपने अनुभव व तरीके भी भिन्न-भिन्न होते हैं। भविष्य कथन के व्यवहारिक पक्ष को देखें तो, कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए जैसे –
1. देश काल और परिस्थिति।
2. चलित कुण्डली।
3. नवांश कुण्डली।
4. राजयोग, दशा व गोचर का समन्वय।
5. ग्रह और भाव का षड्बल।
6. नीच भंग राज योग।
7. वक्री ग्रह।
8. स्तंभित ग्रह।
9. शनि शुक्र दशा का विचित्र नियम।
10. ग्रहों का दृष्टि संबंध।
11. ग्रहों का परस्पर परिवर्तन योग (विनिमय)।
12. काल सर्प योग।
13. पंचमहापुरुष योग।
14. पुरुष जातक या स्त्री जातक में अंतर।
15. कारक ग्रहों का महत्व। तथा 16. राजयोगों का भंग होना।
1. भविष्यकर्ता को देश, काल, स्थान व परिस्थितियों के अनुसार ही भविष्य कथन करना चाहिए। हर देश/समाज व्यक्ति विशेष की संस्कृति, वैभव, समृद्धि आदि अलग-अलग होते हैं, इस का ध्यान रख कर ही कुंडली देखनी चाहिए। किसी धनाढ्य व्यक्ति की कुंडली का लक्ष्मी योग या राजयोग उसे अरबपति बना देगा, जबकि गरीब व्यक्ति की कुंडली का वही योग उसे लखपति ही बनाएगा।
इसी प्रकार सामाजिक स्थिति और संस्कृति भी भविष्य कथन में महत्वपूर्ण है, क्योंकि विदेश में सप्तम भाव में यदि पाप ग्रह स्थित हों और किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो तलाक की भविष्यवाणी काफी सही सिद्ध होगी। पर भारत में इस विषय पर काफी सोच समझ कर बोलना चाहिए, क्योंकि अब भी भारतीय तलाक के बारे में नहीं सोचते।
2. कुंडली में चलित का महत्व-
कुंडली का आकलन करते हुए चलित को अवश्य देखना चाहिए, क्योंकि लग्न कुंडली में ग्रह त्रिकोण या केंद्र में होते हुए भी यदि चलित में षष्ट, अष्टम या द्वादश में चले जायेंगे तो, फलादेश में बहुत अंतर हो जाता है, और उसमें न्यूनता आ जाती है। इसी प्रकार अष्टम या द्वादश में स्थित शुभ ग्रह सप्तम या केंद्र में आ जाएं तो, फल की शुभता में वृद्धि होती है। लग्न कुंडली में ग्रह उसी भाव के फल देता है, जिसमें कि चलित में जाता है।
3. नवांश का महत्त्व:-
जन्मकुडली के साथ-साथ नवांश कुंडली को देखना भी आवश्यक है। सप्तम भाव के अतिरिक्त अन्य ग्रहों की नवांश में स्थिति जैसे उच्च, नीच, स्वगृही या मूलत्रिकोण आदि को देखने से कुंडली के ग्रहों बल का ज्ञान होता है, जिससे फलादेश में बहुत सहायता मिलती है।
4. ग्रह बल-
फलादेश करते हुए ग्रह बल का ध्यान रखना भी आवश्यक है, क्योंकि कई बार कुंडली में योग होते हुए भी ग्रह के हीन बली होने से योग फलीभूत नहीं होता, और भविष्य कथन प्रभावित होता है, जैसे- अनेक बार ऐसी कुंडली देखने को मिलती है, जिसे देख कर कहा नहीं जा सकता कि विवाह नहीं होगा। विवाह कारक ग्रह की स्थिति अच्छी होते हुए भी विवाह नहीं होता, क्योंकि कलत्र कारक ग्रह शुक्र/गुरु सप्तमेश होकर कहीं भी शून्य अंश में हों, शुभ ग्रह की दृष्टि में न हो, पाप ग्रह की दृष्टि या युति में हाें, अथवा पापकर्तरी से पीड़ित हों तो, विवाह की संभावना कम हो जाती है।
5. स्थान परिवर्तन का राजयोग तथा दशाफल का विचित्र नियम
कालिदास द्वारा रचित उत्तरकालामृत के अनुसार शुक्र और शनि यदि दोनों उच्च, स्वक्षेत्री तथा वर्गोत्तम होकर बलवान स्थिति में हों, तो एक दूसरे की दशा तथा अंतर्दशा में खराब फल देते हैं। लेकिन दोनों में से एक बलवान और दूसरा बलहीन हो तो अपने योग का फल देते हैं।
6. नीच भंग राज योग
भविष्य कथन करते हुए नीच ग्रह और उच्च ग्रह का विचार अवश्य किया जाता है। उसमें भी नीच भंग राज योग का ध्यान रखना चाहिए। यदि नीच ग्रह का उच्चनाथ यदि केन्द्र में हो तो नीच ग्रह का नीच भंग हो जाता है, और वह नीच जैसा फल न देकर सामान्य फल देता है। इसी प्रकार नीच ग्रह यदि वक्री हो जाए तो, उच्च ग्रह के समान फल देता है, और उच्च ग्रह वक्री हो जाए तो, वह अपने बल में क्षीण हो जाता है, और अपेक्षित फल नही देते।
7. स्तम्भित ग्रह
गुरु बलवान होने के बावजूद अगर स्तम्भित होता है तो, भी फल नहीं देता। कभी-कभी ग्रह मार्गी से वक्री अथवा वक्री से मार्गी होते समय स्तम्भित हो जाता है।
8. राजयोग का भंग होना
यूं तो हरेक कुण्डली में अनेक राजयोग बनते हैं, परंतु बहुत से राजयोग दूसरे अरिष्ट योगों द्वारा भंग हो जाते हैं, अथवा बहुत कमजोर स्थिति में होते हैं, इसी लिये उन राजयोगों का फल जातक को मिल नहीं पाता, इस लिसे कुण्डली का विश्लेषण करते समय राजयोग और उनको भंग करने वाले योगों, दोनों पर बराबर ध्यान देना चाहिए। अनेक मामलों में ज्योतिषी जातक की कुंडली में राजयोग देखकर जातक को सम्बंधित ग्रह की दशा में राजयोग तो बता देता है, परंतु राजयोगों को भंग करने वाले योगों पर ध्यान नहीं देते, और जिसका परिणाम यह होता है, कि जातक बहुत प्रसन्न होता है, परंतु सम्बंधित ग्रह की दशा आने पर जब राजयोग जैसा परिणाम नहीं मिलता तो उसे बहुत निराशा होती है, साथ ही ज्योतिष तथा ज्योतिषीयों पर विश्वास भी उठ जाता है।
9. वक्री ग्रह :-
वक्री ग्रहों के संबध मे उत्तरकालामृत में कहा गया है कि –
वक्री स्वोच्चबलश्च वक्रसहितो मध्यं बलं तुङ्गभे।
वक्री नीचबलः स्वनीचभवने वक्रीबलं तुङ्गजम्।।
उच्चस्थेन युतोऽर्धवीर्यमिति चेन्नीचे तु शून्यं बलं।
मित्रैः पापरवगैः शुभै रिपुरवगैर्युक्तोऽपि चार्ध बलम्।।
अर्थात- वक्री ग्रह अपनी उच्च राशिगत होने के समतुल्य फल प्रदान करता है । कोई ग्रह जो वक्री ग्रह से संयुक्त हो उसके प्रभाव मे मध्यम स्तर की वृद्धि होती है। उच्च राशिगत कोई ग्रह वक्री हो तो, नीच राशिगत होने का फल प्रदान करता है। इसी प्रकार से जब कोई नीच राशिगत ग्रह वक्री होता जाय तो अपनी उच्च राशि में स्थित होने का फल प्रदान करता है । इसी प्रकार यदि कोई उच्च राशिगत ग्रह नवांश मे नीच राशिगत होने तो तो नीच राशि का फल प्रदान करेगा। कोई शुभ अथवा पाप ग्रह यदि नीच राशिगत हो परन्तु नवांश मे अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो वह उच्च राशि का ही फल प्रदान करता है ।
Shukracharya Astrological Research Centre
www.shukracharya.com
मेरे लेख aapkabhavishya.in पर भी देखें।
कुंडली विश्लेषण करते समय ध्यान दें :- Dr.R.B.Dhawan कुंडली का विश्लेषण करते समय तीन महत्वपूर्ण तथ्यों को कभी नजर अंदाज नहीं करना चाहिए, वे तीन तथ्य हैं:- जातक की मानसिक वृत्ति, शारीरिक वृत्ति, और आत्मिक वृत्ति। वस्तुत: कोई भी जातक जीवन में तीन प्रकार से कर्म करता है, और तीन ही प्रकार की प्रकृति से प्रभावित भी…