कालसर्प योग

निरर्थक भय है, कालसर्प योग :-

Dr.R.B.Dhawan,(Top Bast astrologer in delhi)सूर्य की परिक्रमा पृथ्वी और चन्द्रमा दोनों ही कर रहे हैं, किन्तु चन्द्रमा सूर्य की परिक्रमा के साथ-साथ पृथ्वी का भी परिभ्रमण कर रहा है। चन्द्रमा अपने पथ पर परिभ्रमण करता हुआ, दो स्थानों पर पृथ्वी पथ को काटता है। जिसके फलस्वरूप उत्तरी और दक्षिणी दो संपात बिन्दु निर्मित होते हैं। दक्षिणी संपात बिन्दु को राहु तथा उत्तरी संपात बिन्दु को केतु कहा जाता है। दक्षिणी बिन्दु से पृथ्वी मार्ग को क्राॅस करता हुआ चन्द्रमा ऊपर की ओर जाता है, तथा उत्तरी बिन्दु से नीचे की ओर आता है।राहु-केतु की उत्पत्ति एक साथ नहीं होती है। लगभग 29 दिनों में चन्द्रमा पृथ्वी की एक परिक्रमा पूर्ण कर लेता है। अतः एक माह में सिर्फ दो बार ही चन्द्रमा पृथ्वी पथ को काटता है। यदि यह बात और उपरोक्त तथ्य सच हैं, तो राहु केतु के संबंध में निम्नलिखित बातें भी सच होनी चाहिएं।प्रत्येक माह एक बार राहु और एक बार केतु निर्मित होता है। राहु केतु एक साथ, एक ही समय कभी निर्मित नहीं होते हैं। एक की उत्पति के बाद दूसरे की उत्पत्ति में 13) दिन का समय लगता है। जब राहु और केतु दोनों एक साथ प्रभावी नहीं रहते हैं, तब ऐसी दशा में कालसर्प योग का आधार ही क्या हो सकता है। मत्स्य पुराण (28/61) के अनुसार ‘‘पृथ्वी की छाया मण्डलाकार होती है, राहु इसी छाया में भ्रमण करता है।’’ पृथ्वी की छाया जब चन्द्रमा पर पड़ती है, तो चन्द्रमा आच्छादित हो जाता है। पृथ्वी एवं चन्द्रमा के मध्य पृथ्वी की छाया आ जाने से पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण संभावित होता है। सिद्धांतानुसार जब पूर्णिमा को चन्द्रमा का राहु-केतु से अंशात्मक अंतर 9 डिग्री, 38 कला से कम हो तो अवश्य ही पूर्ण चन्द्रग्रहण होता है।कृष्णपक्ष में चन्द्रमा धीरे-धीरे क्षीण होने लगता है, तथा राहु बलवान होता जाता है। अमावस्या के आसपास राहु पूर्ण प्रभावी हो जाता है। जैसा कि सभी जानते हैं कि अमावस्या को सूर्य और चन्द्र एक ही राशि में बसते हैं। यदि सूर्य-चन्द्र से राहु या केतु की भी युति हो जाए तथा अमावस्या की समाप्ति के समय राहु-केतु से सूर्य का अंशात्मक अंतर 15 डिग्री, 21 कला से कम हो, तो खग्रास सूर्य ग्रहण दिखाई देता है। सूर्यग्रहण में सूर्य तो राहु से ग्रसित होता ही है, पाक्षिक गति के अनुसार चन्द्रमा भी क्षीण होने के कारण दोषपूर्ण होता है। सूर्यग्रहण हो, अथवा न हो यदि सूर्य-चन्द्र से राहु या केतु की युति हो, तो सूर्य, चन्द्र दोषपूर्ण हो जाते हैं, यह सच है।राहु केतु और ग्रहण योग-ग्रहण फल के सामने जन्मस्थ तथा गोचरीय ग्रहों के शुभ फल क्षीण हो जाते हैं। संहिता शास्त्र के अनुसार देश की राजनीति और शासकों पर ग्रहण का दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है। लोकसभा चुनाव के समय अटल विहारी वाजपेयी के जन्मस्थ और गोचरीय ग्रह अनुकूल थे, फिर भी वे दोबारा प्रधानमंत्री न बन सके। इसका कारण यह है कि उनके लिए चन्द ग्रहण अशुभ था। जिस समय चन्द्र ग्रहण पड़ रहा था। उसी समय उन्होंने ग्वालियर से लखनऊ की हवाई यात्रा की थी। इस चन्द्रग्रहण के कुप्रभाव से उनकी पार्टी पुनः सत्ता में न आ सकी। इसके अलावा जातक फलित में भी ग्रहण योग का बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि सूर्य राहु से दृष्ट या युत हो, अथवा सूर्य से द्वितीय स्थान में राहु स्थित हो, तो पितृदोष जानना चाहिए। पितृदोष के कारण जातक को पिता का सुख नहीं मिलता है, अथवा पिता से वैमनस्य बना रहता है। पैतृक सम्पत्ति का लाभ नहीं मिलता। ऐसा व्यक्ति निर्धन,दरिद्र और मलिन होता है।पितृदोष के कारण संतानहीनता होती है। राज्यकृपा प्राप्त नहीं होती, अर्थात जातक को सरकारी नौकरी नहीं मिलती। दशम भाव या दशमेश की स्थिति मजबूत और शुभ होने पर यदि सरकारी नौकरी मिल भी जाए तो उस जातक को अधिकारी परेशान करते हैं। उपरोक्त सभी फलों के लिए कालसर्प दोष का होना आवश्यक नहीं है, इसके लिए तो सूर्य का पापाक्रांत होना ही काफी है। महर्षि पाराशर ने कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के जन्म को दोषपूर्ण माना है। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी, अमावस्या या शुक्ल प्रतिपदा का जन्म हो तथा सूर्य या चन्द्र राहु से युत या दृष्ट हों, तो यह योग अनिष्टप्रद होता है। यदि सूर्य ग्रहण के वेध काल का जन्म हो, तो अनिष्ट फलोें की अधिकता और अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि सूर्य और चन्द्र दोनों ही राहु के शत्रु हैं, तथा राहु सर्वाधिक पापी ग्रह है।ग्रहण योग में सारे ग्रह राहु केतु के घेरे में हों, या ना हों इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, ऐसा मेरा अनुभव है। कालसर्प योग के समर्थक कालसर्प को भी एक प्रकार का ग्रहण योग कहते हैं। विद्वान तो सभी जानते हैं, किन्तु भोली-भाली जनता को मैं बता देना चाहता हूं कि राहु केतु सिर्फ चन्द्रमा और सूर्य को कभी-कभी ग्रसित करते हैं। अन्य किसी ग्रह को नहीं। भला आपने कभी सुना है कि बुध, शुक्र, मंगल, गुरु या शनि को ग्रहण लग गया है? नहीं ना! फिर आप लोग इतने बड़े झूठ को कैसे स्वीकार कर रहे हैं कि राहु ने सभी सातों ग्रहों को गटक लिया है। क्या राहु के भूत में इतनी सामर्थ्य है कि वह इतने विशाल और जीवंत ग्रहों को अपना ग्रास बना ले? इसे जानने के लिए हमें पुनः अंतरिक्ष की ओर जाना पड़ेगा।राहु-केतु का खगोलीय विश्लेषण-दक्षिणी और उत्तरी संपात बिन्दुओं को राहु-केतु कहा जाता है। ईमानदारी की बात तो यह है कि सौरमण्डल में हमारी पृथ्वी ही राहु-केतु के घेरे में आती है। मंगल, गुरु और शनि कभी भी राहु केतु के घेरे में नहीं आते हैं। चूंकि चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है, इसीलिए पृथ्वी के साथ-साथ चन्द्रमा भी राहु-केतु के घेरे में आ जाता है। सूर्यग्रहण के समय सूर्य भी राहु या केतु से आच्छादित हो जाता है। किन्तु वह राहु और केतु के बीच में नहीं आ सकता क्योंकि सूर्य तो सौरमण्डल के सेंटर पाइंट पर है, तथा राहु-केतु पृथ्वी और चन्द्रमा के साथ-साथ चलते हैं। आपकी नजर में क्या ऐसा कभी होता है कि सूर्य के एक ओर पृथ्वी हो, तथा दूसरी ओर चन्द्रमा हो?खगोल वैज्ञानिकों के अनुसारः-सौरमण्डल में ग्रहों का क्रम इस प्रकार है। सूर्य, बुध, शुक्र, पृथ्वी, चन्द्रमा, मंगल, गुरु, शनि। बुध और शुक्र की कक्षाएं सूर्य और पृथ्वी के मध्य में पड़ती हैं, अतः बुध और शुक्र पृथ्वी के अन्तरवर्ती ग्रह होने के कारण राहु केतु की वक्र गति में आ सकते हैं। लेकिन मंगल, गुरु और शनि तो बाह्यर्वर्ती ग्रह हैं। इनकी कक्षाएं पृथ्वी के बाद, बाहर की ओर स्थित हैं। इसीलिए सौरमण्डल मे मंगल, गुरु और शनि तो कभी भी, कैसे भी राहु-केतु के घेरे में नहीं आते हैं, नही आ सकते हैं। आशय यह है कि आकाश में कभी भी कालसर्प योग निर्मित नहीं होता है। इसका शास्त्रीय प्रमाण यह है कि 1800 प्रकार के नाभस्य योग की खोज करने वाले दक्षिण भारत के यवनाचार्यों ने भी आकाश में कालसर्प की आकृति नहीं देखी। अतः खगोल शास्त्रीय दृष्टिकोण से कालसर्पयोग नहीं बनता है। राहु की मंगल से शत्रुता होने पर भी राहु मंगल को ग्रसित नहीं कर पाता है, क्योंकि मंगल आदि ग्रह राहु की रेंज से बाहर है, हाँ यदि सौरमण्डल में शनि की कक्षा के बाद राहु या सूर्य से पहले केतु के दृश्यमान खगोलीय पिण्ड होते, तो वर्तमान में प्रचलित कालसर्प योग वास्तविक होता।जन्मकुण्डली में जो कालसर्प योग हमें दिखाई देता हैं, वह कालसर्प का भ्रम है। जैसे बहुत दूर देखेने पर आकाश और पृथ्वी आपस में मिले हुए दिखाई देते हैं, किन्तु वास्तव में वे कहीं नहीं मिलते हैं। ठीक इसी प्रकार कालसर्प भी मिथ्या है। कालसर्प का भ्रम इसलिए उत्पन्न होता है, क्योकि जन्म कुण्डली में ग्रहों को उनकी खगोलीय कक्षाओं के अनुसार स्थापित नहीं किया जाता है, नवग्रहों को राशि पथ के आधार पर स्थापित किया जाता है। जबकि वे एक ही राशि में होने पर भी एक दूसरे की कक्षाओं से बहुत दूर होते हैं। राहु-केतु हमेशा एक-दूसरे के सामने 6 राशियों या 180 अंश की दूरी पर स्थित रहते हैं। छः राशियों का अन्तर होने के कारण ही अधिकांश कुण्डलियों में सभी सातों ग्रह राहु या केतु के एक ओर होते हैं। राहु-केतु मध्य राशियों में सभी ग्रह होने से भयानक कालसर्प योग की कल्पना कर ली जाती है, जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है।कालसर्प का विस्तार और प्रकार-कालसर्प योग की एक किताब में लिखा है- वर्तमान में 90 प्रतिशत लोग कालसर्प दोष से पीड़ित हैं, इसलिए दुःखी, परेशान, बेरोजगार तथा चिन्ताओं से ग्रस्त हैं। इस पुस्तक का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के दुःख, दुर्भाग्य और असफलता का कारण केवल कालसर्प ही है। यदि इस पुस्तक की बात को सच मान लिया जाए तो ऋषि प्रणीत ज्योतिष शास्त्र के सारे ग्रंथ इस कालसर्प के आगे बौने साबित हो जाते हैं। क्या सभी विद्वानों को यह स्वीकार है? कालसर्प नामक झूठ का इतना विस्तार हो चुका है कि इससे बचना मुश्किल है। कालसर्प योग विशेषज्ञों (सपेरों) की नजर में कम से कम यह 12 प्रकार का होता है, और अधिकतम 288 प्रकार का। मुझे कभी-कभी सुनने में आता है कि आंशिक कालसर्प में कोई एकाध ग्रह इधर-उधर खिसक जाता था। उन्हें भी घसीटकर 12 भावों के आधार पर 288 को 12 से गुणा कर दिया गया है। इस नवीन खोज के आधार पर 3456 प्रकार के कालसर्प योग होते हैं। भगवान धन्वन्तरी ने पृथ्वी पर पाये जाने वाले सर्पों के 80 भेद (प्रकार) बताये हैं। आशय यह है कि जितने सर्पों के प्रकार नहीं होते उससे कई गुणा अधिक कालसर्प के प्रकार होते हैं। क्या आपको यह आश्यर्च नहीं लगता? कालसर्प योग अपने आप में बड़ा ही विचित्र है, यह एकमात्र ऐसा योग है, जिसकी इतनी अधिक वैराइटियां हैं। संसार में इतनी सारी वैराइटियों का न तो कोई रोग है, और न कोई योग है। बाबा रामदेव के पास भी इतने सारे योग नहीं होंगे। यदि सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र के सभी योगों को मिला दिया जाए तो भी आंकड़े को (3456) छू पाना असंभव है। ज्योतिष के प्रवर्तक ऋषियों और मूर्धन्य ज्योतिषाचार्यों ने प्रत्येक योग का एक ही प्रकार बताया है। फिर चाहे वह राजयोग हो या अरिष्ट योग हो। सारावली के रचयिता कल्याण वर्मा ने इसमें इतना सा संशोधन अवश्य किया है कि लग्न और चन्द्र में से जो अधिक बलवान हो, उसके अनुसार जन्मस्थ और गोचरीय ग्रहों का विचार करना चाहिए। यदि हम जन्म लग्न और चन्द्र राशि दोनों के आधार पर किसी योग का विचार करें तो वह दो प्रकार से निर्मित हो सकता है किन्तु 288 या 3456 प्रकार से कदापि नहीं। पूर्ण अथवा आंशिक कालसर्प योग, उदित या अनुदित कालसर्प योग, दृश्य या अदृश्य कालसर्प योग, मुक्त या ग्रस्त कालसर्प योग। ये परस्पर विरोधी शब्दों के कालसर्प सुनने मात्र से ही संशय होता है। ऐसे संशय में जीने वाले ज्योतिषी अपनी जेब तो भर सकते हैं, किन्तु किसी व्यक्ति को सुमार्ग नहीं दिखा सकते। मेरे विचार से कोई योग या तो शुभ होता है, अथवा अशुभ होता है, किन्तु कालसर्प के खिलाड़ी कालसर्प को अच्छा और बुरा दोनों प्रकार का बताते हैं, वे कालसर्प को योग भी कहते हैं, और दोष भी कहते हैं। कुछ भी हो, कालसर्प वालों की दलीलें (कुतर्क) इतनी अधिक हैं, कि आप जीत नहीं सकते हैं।कालसर्प की खोज कब और किसने की थी? लोगों को भयभीत कर गुमराह करने वाले इस कालसर्प की खोज कब हुई और किसने की? इसके प्रणेता ने स्वयं को छुपाया क्यों? इस पर अब तक सार्वजनिक बहस/परिसंवाद क्यों नहीं होती है? अफवाह फैलाकर, मुंह छुपाकर क्यों बैठ जाते हैं- कालसर्प के समर्थक? ज्योतिष सम्मेलनों में भी मुझे कालसर्प के विरोध में बोलने नहीं दिया जाता, शायद इसलिए कि सबकी कलई खुल जाएगी? ‘त्रिपिंड नारायण नागवली कालसर्प योग’ में लेखकर ने केवल कालसर्प के बारे में अपने मत को प्रतिपादित करते हुए लिखा है “जन्मकुण्डली में सभी ग्रह राहु और केतु के एक ही बाजू में स्थित हो तो ऐसी ग्रह स्थिति को कालसर्प योग कहते हैं।’’ यह उनका व्यक्तिगत विचार है। इसका उनके पास कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं है। यह भारतीय ज्योतिष शास्त्र के विरुद्ध है। उपरोक्त पुस्तक में सभी पाठकों को कालसर्प की शांति कराने हेतु ‘त्र्यंबकेश्वर’ में आने पर अधिक जोर दिया गया है। जबकि त्र्यंबकेश्वर में प्राचीन काल से ही सर्पशाप की शांति एवं कर्मज रोगों की शांति हेतु नागबली विधान किया जाता है। महर्षि पाराशर कथित सर्पशाप की ग्रह स्थितियों से (वर्तमान में प्रचलित) कालसर्पयोग की तनिक भी संगति नहीं है। अतः त्र्यंबकेश्वर में कालसर्प की शांति का कोई आधार नहीं है। इसी पुस्तक की नकल करके एक अन्य लेखक ने भी एक पुस्तक लिखी जिसमें कालसर्प योग की प्राचीनता को सिद्ध करने का असफल प्रयत्न किया है। वे लिखते हैं, महर्षि पाराशर आचार्य वराहमिहिर, महर्षि भृगु, कल्याण वर्मा, वादरायण, भगवान गर्ग, माणित्य आदि सभी ने कालसर्प योग को माना है। वृहद्पाराशर, वृहद्जातक तथा सारावली आदि ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में कालसर्प योग का उल्लेख नहीं मिलता है।पिछले दस वर्षों में मैंने सभी प्राचीन ग्रंथों को खंगाल कर देख लिया है, उनमें कहीं भी कालसर्प योग दिखाई नहीं देता है। कालसर्प योग की बात तो बहुत दूर की बात है, कालसर्प योग को उत्पन्न करने वाले राहु-केतु भी प्रमुखता से दिखाई नहीं देते हैं। गौण रूप से कतिपय स्थानों पर दिखाई देते हैं। समाचार पत्रों में प्रकाशित अपने लेखों के माध्यम से जब हमनें कालसर्प की प्राचीनता पर प्रश्न उठाये तो कालसर्प के समर्थकों ने अपना पैंतरा बदल दिया। तत्पश्चात वे कहने लगे, माना कि कालसर्प का शास्त्रों में वर्णन नहीं है किन्तु नवीन शोध व अनुसंधान के बाद विद्वानों ने इसे प्रमाणित किया है। कालसर्प योग की खोज कब और किसने की थी? हमारे इस प्रश्न पर वे मौन हो जाते हैं, मैं पुनः पूछता हूं कि इतने बड़े योग को एक अफवाह की भांति क्यों फैलाया गया। इतना बड़ा अनुसंधान करने वाले व्यक्ति को गुप्त क्यों रखा गया? मैं बताता हूं क्यों? क्योंकि इस देश में उन्हीं मतों को स्वीकार किया जाता है, जो विद्वान अपने मत को प्रतिपादित करता हुआ ‘शास्त्रार्थ’ में विजयी होता है। उसके मत को जनता सिद्धांत के रूप में स्वीकार कर लेती है। कालसर्प के समर्थक ओर प्रणेता आज भी शास्त्रार्थ के भय से मुंह छिपाये हुए हैं। सर्प योग का कालसर्प से कोई संबंध नहीं है- सारावली और वृहद्पाराशर के अनुसार तीनों केन्द्रों (4, 7, 10) में यदि पाप ग्रह (शनि, मंगल, सूर्य) हों, तो अशुभ (अनिष्ट) फल देेनेवाला सर्पयोग होता है। प्राचीन आचार्यों ने इस योग में प्रथम केन्द्र (भाव) को शामिल नहीं किया है क्योंकि प्रथम भाव मूलत्रिकोण कहलाता है। सर्पयोग में उत्पन्न व्यक्ति विषैले सर्प की भांति क्रूर, कुटिल, दुःखी, दरिद्री (निर्धन) तथा दूसरों पर आश्रित रहनेवाला होता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति का भाग्य कभी साथ नहीं देता है। कालसर्प वाले इसी सर्पयोग के आधार पर ‘कालसर्प योग’ की प्राचीनता एवं शास्त्रीयता सिद्ध करते हैं। जबकि वास्तव में सर्पयोग का आधुनिक कालसर्प से कोई संबंध नहीं है। यवनाचार्यों द्वारा कथित 1800 प्रकार के किसी भी योग में राहु-केतु शामिल नहीं हैं। महर्षि पाराशर, आचार्य वाराहमिहिर और कल्याण वर्मा ने सर्पयोग के लिए शनि, मंगल और सूर्य को ही दोषी माना है। राहु को नहीं। यदि हम पूर्व आचार्यों द्वारा प्रतिपादित ‘सर्पयोग में पाप ग्रह, राहु को शामिल कर लें, तो वर्तमान में प्रचलित कालसर्पयोग से इसकी कोई संगति नहीं बैठती है। यह कहना गलत है कि कालसर्प योग प्राचीन सर्पयोग का ही आधुनिकीकरण या परिष्कृत रूप है। क्योंकि सर्पयोग में पापग्रह अन्य ग्रहों को ग्रसित नहीं करते हैं और ना ही कोई किसी के घेरे में आता है।राहु केतु के भाव फल-राहु-केतु के कोई दृश्यमान खगोलीय पिण्ड नहीं है, इसीलिए उन्हें ताराग्रह न कहते हुए, ‘छाया’ ग्रह कहा जाता है। यह बात सत्य है कि पृथ्वी और मनुष्य जीवन पर राहु-केतु का कुछ प्रभाव तो अवश्य ही पड़ता है। किन्तु इतना ज्यादा नहीं कि उनके आगे सभी ग्रहों के प्रभाव निष्फल हो जाएं। कालसर्प वाले कहते हैं कि राहु पूर्व जन्म के कर्मों का फल देता है। मैं कहता हूं कि सभी ग्रह पूर्व जन्म के कर्मों का फल देते हैं। आप बताएं कि कौन सा ग्रह पूर्वाजित कर्मों का फल नहीं देता?1. प्राचीन आचार्यों का एक बहुत बड़ा वर्ग राहु-केतु को फलित ज्योतिष (होरा-शास्त्र) में शामिल करने से कतराता रहा है। यथा- अष्टक वर्ग में राहु-केतु के वर्ग नहीं होते हैं।2. अष्टोत्तरी महादशा में केतु की महादशा नहीं आती है।3. ‘भृगु-सूत्र’ में महर्षि भृगु ने राहु-केतु का संयुक्त भाव फल लिखा है। उनके मत से भाव फल राहु का है, वही केतु का है, केतु का अलग से कोई भावफल नहीं होता है।4. कुछ विद्वानों के विचार से राहु की अपेक्षा केतु विपरीत फल देता है।5. महर्षि जैमिनी ने आत्म आदि कारकों में केतु को शामिल नहीं किया है। अन्य ग्रह से अंश अधिक होने पर राहु ‘कारकों’ में शामिल हो पाता है।6. कतिपय आचार्यों ने ‘शनिवत् राहु’ और ‘कुजवत् केतु’ कहकर छोड़ दिया।7. जातक फलित में स्वतंत्र रूप से राहु केतु के अस्तित्व को बहुत कम ज्योतिषाचार्यों ने स्वीकार किया है। अतः कालसर्प योग में अधिकांश भावों को प्रभावित बताते हुए, प्रधान रूप से राहु- केतु के विस्तृत फलकथन करना बेईमानी, मनमानी है।8. नपुंसक ग्रह होने के कारण राहु-केतु जिस ग्रह के साथ युति करते हैं, उसी के अनुरूप फल देते हैं। अर्थात् जिस ग्रह के साथ होते हैं, उस ग्रह के बल को बढ़ा देते हैं।9. यदि राहु-केतु अकेले ही किन्हीं भावों में बैठे हों तो भाव के स्वामी ग्रह (भावेश) की प्रकृति के अनुसार फल देते हैं।10. राहु-केतु जिस भाव में बैठते हैं, उस भाव से संबंधित फलों की हानि (कमी) करते हैं।11. तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में बैठा राहु, इन भावों की अशुभता, दोषों और विघ्न-बाधाओं को दूर करके शुभ फल प्रदान करता है। यह शास्त्रों में कहा गया है- त्रिष्ठ्एकादशे राहु सर्वविघ्नो पशांतय।12. राहु 150 अंश तक मिथुन में उच्च राशि का होने के कारण शुभ फल देता है। जबकि केतु 150 अंश तक धनु में उच्च राशि का होने के कारण शुभ फल देता है।13. राहु-केतु केन्द्र में स्थित होकर यदि पंचमेश, नवमेश या लग्नेश से दृष्टि या युति संबंध स्थापित करें तो उनकी महादशा में राहु-केतु की अन्तरदशा शुभफल प्रदान करती है।महापद्म कालसर्प और षष्ठस्थ राहु के फल-कालसर्प वाले कहते हैं कि जिस कुण्डली में राहु छठे और केतु 12वें भाव में हो, तथा शेष सभी ग्रह इन दोनों के मध्य में स्थित हों तो महापद्म संज्ञक कालसर्प योग होता है। इस योग के कारण जातक को रोग, कर्ज एवं गुप्त शत्रुओं से परेशानी का सामना करना पड़ता है। पति-पत्नी में परस्पर कलह रहती है, और आजीविका के क्षेत्र में उन्नति नहीं होती है।वास्तव में छठे भाव में राहु होने से जातक निरोगी, शत्रुविजेता (शत्रुहंता) तथा सदैव लाभान्वित रहते हुए संघर्ष विहीन जीवन यापन करता है। ऐसा जातक मुकदमेबाजी में जीत जाता है तथा उसका कभी एक्सीडेंट भी नहीं होता है। यह मेरा अपना अनुभव है। षष्ठ भावस्थ राहु की द्वादश भाव पर विच्छेदात्मक दृष्टि होने से जातक के दुर्भाग्य दूर होते हैं। फलस्वरूप उसे धनहानि (व्यय) और कारावास का बंधन नहीं होता है। छठा भाव ‘त्रिक’ अर्थात् दुःख स्थान है, दुःखस्थान में यदि पापग्रह हो, तो उस स्थान से सम्बंधित दुःखों का व्यक्ति के जीवन में अभाव रहता है। षष्ठ भाव में स्थित राहु का षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश में युति या दृष्टि संबंध हो, तो सोने में सुहागा होता है। षष्ठ भाव में राहु और दशम भाव में गुरु हो तो, अष्टलक्ष्मी नामक योग बनता है। इस योग में जन्मा व्यक्ति धनी, यशस्वी निरोगी तथा स्त्रियों और पुत्रों से युक्त होता है। भृगु सूत्रम् के अनुसार यदि षष्ठभाव में राहु या केतु हो तो, ऐसा व्यक्ति धनी व कुलीन परिवार की सुन्दर स्त्रियों का सुख भोग लेता है।सर्पश्राप और पद्म कालसर्प योग-यदि किसी व्यक्ति ने पिछले जन्म में सर्प का वध किया हो या सर्प को मरवाया हो, तो उस व्यक्ति को पिछले जन्म के सर्पशाप के कारण वर्तमान जन्म में संतान हानि होती है। बृहद् पाराशर होरा शास्त्र के शापाध्याय में सर्पशाप के सन्दर्भ में सात श्लोक अंकित है। उनमें से प्रमुख श्लोक निम्नवत् है :-पुत्रस्थागते राहौ कुजेनापि निरीक्षते।कुजक्षेत्रगते वापि सर्पशापात्सुतक्षायः।।अर्थात् पंचम स्थान में, किसी भी राशि में राहु स्थित हो, तथा उस पर मंगल की दृष्टि हो, अथवा मंगल की राशि में राहु पंचम भावस्थ हो, तो सर्पशाप के कारण संतान उत्पन्न नहीं होती है। यदि उत्पन्न हो, भी जाएं तो वह जीवित नहीं रहती है। अतः महर्षि पाराशर ने सर्पशाप के लिए कालसर्प को दोषी नहीं माना है। संतानहीनता या संतानहानि के लिए पद्म नामक कालसर्प आवश्यक नहीं है। इस हेतु पुत्र स्थान में राहु का बैठना ही काफी है। महर्षि भृगु ने पंचम भाव में राहु-केतु का फल इन शब्दों में प्रदर्शित किया है।पुत्रभावः सर्पशापात् सुतक्षय,नाग प्रतिष्ठया पुत्रः प्राप्ति।।(संतान भाव में राहु या केतु होने से पूर्वजन्म के सर्पशाप के कारण संतान का अभाव रहता है। सर्पशाप की शांति हेतु शेषनाग, नागदेव की प्रतिमा विधिवत् रूप से स्थापित करने पर दीर्घजीवी पुत्र की प्राप्ति हो जाती है।) नये जमाने के ज्योतिषी इसी श्लोक से कालसर्प की प्राचीनता सिद्ध कर रहे हैं। जबकि यह कालसर्प योग का वर्णन नहीं है, यह तो पंचम भाव में राहु-केतु का फल है। इस दोष की शांति हेतु नासिक जाने की आवश्यकता नहीं है, नाग देवताओं के प्रति सच्ची श्रद्धा भक्ति ही पर्याप्त है। महर्षि भृगु का तो यही आशय है। महर्षि पाराशर ने सर्पशाप की शांति हेतु गाय, भूमि, तिल तथा सुवर्ण (स्वर्ण) आदि दान करने की सलाह दी है। उन्होंने इन दोंषों के परिहारार्थ ‘नागबली’ करने का कोई निर्देश नहीं दिया है। इसलिए मैं कहता हूँ कि ‘कालसर्प‘ असत्य है। आप इससे बिलकुल भी डरें नहीं।ॐ अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।शंखपालं धार्तराष्ट्रं तक्षकं कालियं नमः।।

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निरर्थक भय है, कालसर्प योग :- Dr.R.B.Dhawan,(Top Bast astrologer in delhi)सूर्य की परिक्रमा पृथ्वी और चन्द्रमा दोनों ही कर रहे हैं, किन्तु चन्द्रमा सूर्य की परिक्रमा के साथ-साथ पृथ्वी का भी परिभ्रमण कर रहा है। चन्द्रमा अपने पथ पर परिभ्रमण करता हुआ, दो स्थानों पर पृथ्वी पथ को काटता है। जिसके फलस्वरूप उत्तरी और दक्षिणी…