मासिक धर्म और ज्योतिष
नारी का मासिक धर्म ओैर ज्यौतिर्विज्ञान-
Dr.R.B.Dhawan (editor – AAP ka bhavishya.in), (Top astrologer in delhi, best astrologer in delhi)
भारतीय ज्योतिष शास्त्र का विषय बहुत ही विस्तारित है। यह शास्त्र समाज को एक तंत्रात्मक सूत्र में बांध कर मनुष्य को व्यवस्थित जीवन-यापन के लिये प्रेरित करता है। इस शास्त्र से ही काल गणना (तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण की गणना) और मुहूर्त, त्यौहार इत्यादि की सूचना मिलती हैं। धरती की ऋतुओं के नाम, वर्ष के नाम ग्रहों की गति इत्यादि की जानकारी मिलती है। ऋतुओं-नक्षत्रों की तरह ही नारी के ऋतु-चक्र और उसकी महत्ता से भी भारतीय ज्योतिषी भली-भाँति परिचित थे। उनका कथन है कि कन्या का प्रथम ऋतु-दर्शन, उसके भावी जीवन की झाँकी प्रस्तुत करता है। ऋतुदर्शन का समय 13 वें वर्ष से 41 वें वर्ष तक माना जाता है।
मासि मासि रजः स्त्रीणां रसजं स्त्रवति त्र्यहम् ।
वत्सरात् द्वादशादूधर्व मेकपंचाशतः परम् ।।
रजः प्रवृति के पूर्व काल तक वह कन्या है, इस संदर्भ में शास्रकार लिखते है कि-
कन्या कमनीया भवति। क्वेयं नेतव्या इति वा। कमनेन नीयते वा। कनतेः वा स्यात कान्तिः।।
कन्या का पिता तो केवल संरक्षक है। इस कामनीय दिव्यशक्ति का स्वामी तो अन्य कोई होगा। ।
यही कारण है कि आचार्यो ने कन्या का कोई गोत्र नहीं माना। विवाह के पश्चात् ही उसका गोत्र निश्चित होता है। किन्तु विवाह की आयु निश्चित करते हुए इस बात पर जोर दिया है कि ऋतु होने के पूर्व कन्या का विवाह कर दिया जाये।
(आश्वालयन) — अद्रष्ट रज से दध्यात् कन्याये रत्नभूषणम्।
(याज्ञवल्क्य) — अप्रयच्छ समाप्नोति भ्रूणहत्यामृतावृतैः।
(मनुः) — प्रदानं प्रवृतोः स्मृतम्।
शास्त्र मत है कि रजस्वला होने के पूर्व ही कन्यादान (विवाह) होना चाहिये। रजस्वला होने की स्थिति तक पहुँचने के लिये कन्या के शारीरिक विकास में तीन स्तर-क्रम का होना देखा गया है। शारीरिक विकास क्रिया का प्रतिनिधित्व करने वाली तीन दैविक शक्तियों से उसका शरीर अधिकृत रहता है। इस सन्दर्भ में ऋग्वेद मं0 10 सू0 85 देखें।
सोमः प्रथमो विविदे गंधर्वो विविद उत्तरः।
तृतीयों अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः।।
कन्या के शरीर को सर्व प्रथम चन्द्र ने प्राप्त किया। द्धितीय विकास मार्ग में गन्धर्व ने, और तृतीय विकास मार्ग में अग्निदेव ने। इनके पश्चात् मानव ने उसके शरीर को अपने अस्तित्व में लिया। इन तीनों शक्तियों ने कन्या शरीर को विकसित कर रजःप्रवृति की स्थिति में पहुँचाया। स्त्रियोचित हावभाव, लज्जा, संकोच आवण्य आदि लक्षणों को विकसित करने में चन्द्रमा का प्रभाव होता है। विकास मार्ग में गान्धवीर्य, शक्ति तथा रजोवती होने में अग्नितत्व क्रियाशील होता है। आर्तवकालीन अवस्था तक कन्या सर्वांग पूर्णता को प्राप्त होे जाती है –
व्यज्जनैस्तु समुत्पन्नैः सोमोभुंजीत कन्यकाम्।
पमोधरैस्तु गंधर्वो रजसाऽग्निः प्रकीर्तितः।।
रज:प्रवृृत्ति के मूलत्तवों में मंगल पित्त रूप अग्नि और चन्द्र, रक्त रूप जल है। मंगल और चन्द्र का योग रजोदर्शन का कारण है। पित्त के द्वारा रक्त के क्षुभित होने पर नारियों में रजःप्रवृत्ति होती है। आर्तव होने पर नारी गर्भ धारण के योग्य मानी जाती है। किन्तु प्रत्येक आर्तव काल गर्भधारण की क्षमता नहीं रखता है। स्त्री की जन्मकालीन ग्रह-स्थिति से सम्बन्ध रखते हुए आर्तव कालीन चन्द्र अनुपचय भावों में मंगल से द्रष्ट होने पर ही गर्भ के उपयुक्त आर्तव होता है। यह योग बन्ध्या-वृद्धा, रोगी, और अल्पवयस्काओं के लिये नहीं है।
स्त्रीणां गतोऽनुपचयक्र्षमनुष्ण रश्मिः
संदृश्यते यदि धरातनयेन तासाम्
गर्भ ग्रहार्तवमुशन्ति तदा न वन्ध्या
वृद्धा तुराल्यवयसामपि तन्न हीष्टम्।।
दिन के पूर्वान्ह में कन्या का प्रथमार्तव होना शुभ माना है। प्रातःसायं की सन्ध्या में प्रथम ऋतु दर्शन होने से वासना शक्ति प्रबल होती है। तथा रात्रि-काल का आर्तव, कन्या को विधवा बनाता है।
दुर्भगासर्व सन्धिषु
इस वाक्य से अभिप्राय है कि तिथि नक्षत्र, योग या दिन-रात की सन्धियों में रजोदर्शन होना अनिष्ट फल का सूचक है। आर्तव काल के न्यूनाधिक रक्त परिमाण पर आचार्यो की भविष्यवाणी है कि अल्प रक्त स्त्राव होने पर कन्या स्वेच्छाचारिणी होती है। न अधिक और न कम स्त्राव होना शुभ लक्षण माना जाता है, और बहुत स्त्राव होना दुर्भाग्य का सूचक है। आर्तव शोणित के रंग पर भी आचार्यो ने शुभाशुभ फल का निर्देश करते हुए उसके भावी जीवन का शुभाशुभ फलों का निर्देश किया है।
रक्ते रक्ते भवेत् पुत्रः कृष्णोय च मृत पुत्रका
पिच्छलाभे भवेत् बन्ध्या काकवन्धाअ पाण्डुरे।
पीते च स्वैरिणी प्रोक्त सुभगार्गुज बर्णके
सिन्दूरामें भवेत् कन्या रजःशोणित लक्षणम्।।
लाल वर्ण का आर्तव हो तो पुत्रवती के लक्षण पाये जाते हैं। काला रंग होने पर मृत सन्तान होगी। पाण्डुरंग तथा कौवे के पंख जैसा रंग होने पर दाम्पत्य सुख नष्ट होगा। पीला या गुंजा के वर्ण का रंग होना शुभ लक्षण है। सिन्दूर की तरह रंग हो तो कन्या सन्तति अधिक होगी। इस तरह रक्त के रंग पर अपने अनुभव प्रस्तुत करने के पश्चात् ऋतुधर्म के समय धारण किया गये वस्त्रों के रंग पर भी मनोवैज्ञानिक तत्यों से शुभाशुभ फल का संकेत किया है।
सुभागाश्वेत वस्त्रो च रोगिणी रक्त वासना
नीलाम्बरधरा नारी विधवा प्रथमार्तवा।
भोगिनी पीतवस्त्राय दृढ़वस्त्रा च पतिव्रता
दुर्भगा जीर्ण वस्त्राय सुभगा चारूण वासिनी।।
उपरोक्त परिणामों के अतिरिक्त चैत्र, ज्येष्ठ, आषाढ़, कार्तिक, और पौष मास में प्रथम रजोदर्शन होना शुभ नही है। पंचांग शुद्धि के अनुसार रविवार मंगलवार व शनिवार रिक्ता तिथि, गंण्डान्त नक्षत्र, व्यतीपात योग, तथा पापग्रह से पीडित एवं नीच राशिगत चन्द्र में तथा जन्मराशि से 12 वें चन्द्र होने पर प्रथमार्तव होना नेष्ट कहा है।। अधिकांश लक्षणों के नेष्ट होने पर आर्तव शान्ति का विधान है। शान्ति करने से अनिष्ट फलों का ह्नास होकर शुभ फल में वृद्धि होती है।
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नारी का मासिक धर्म ओैर ज्यौतिर्विज्ञान- Dr.R.B.Dhawan (editor – AAP ka bhavishya.in), (Top astrologer in delhi, best astrologer in delhi) भारतीय ज्योतिष शास्त्र का विषय बहुत ही विस्तारित है। यह शास्त्र समाज को एक तंत्रात्मक सूत्र में बांध कर मनुष्य को व्यवस्थित जीवन-यापन के लिये प्रेरित करता है। इस शास्त्र से ही काल गणना (तिथि,…