
ज्योतिष और नेत्ररोग
परमात्मा ने हर प्राणी के शरीर में दो सुंदर नेत्रों की रचना की है, इन सुंदर नेत्रों की स्थापना ईश्वर ने अपनी सुन्दर रचना “सृष्टि” का अवलोकन करने तथा अपने हितों की रक्षा करने के लिये मानव शरीर में की है। साथ ही ईश्वर ने इन नेत्रों में एक विशेष प्रकार की अलौकिक शक्ति भी प्रदान कि है, जिसके माध्यम से प्राणी सामने वाले के मस्तिष्क में पैदा होने वाले हर प्रकार के विचार (भाव) की पहचान कर सके। अतः प्रत्येक मनुष्य और प्राणी को प्रकृति के इस विशेष उपहार (विशेष अंग) की विशेष रक्षा करनी चाहिये। आजकल आमतौर पर देखने में आता है कि बहुत छोटी सी आयु में बच्चों को चश्मे की आवश्यकता पड़ने लगी है, कभी-कभी तो बिना चश्मे के बच्चे एक कदम भी नहीं चल सकते और एक छोटा सा पत्र भी नहीं पढ़ सकते।
नेत्र मनुष्य शरीर में सबसे उत्तम और मूल्यवान अंग हैं। नेत्र हैं तो जहान है, अतः नेत्रों की रक्षा करना मनुष्य का सबसे प्रथम कर्तव्य है! प्राचीन भारतीय चिकित्सा शास्त्र (आयुर्वेद) में आयुर्वेदाचार्यो ने नेत्र रोगों के लिये भी अन्य रोगों की तरह शरीर में वात, पित्त, कफ के असंतुलन तथा त्रिदोष को तो कारण माना ही है, साथ ही साथ जन्मजात रोग (जन्म के समय से ही जो रोग हों), नेत्र रोगों के लिये पूर्वजन्मों में किये गये पाप, अपराध को विशेष रूप से कारण माना है। आधुनिक चिकित्सकों के मतानुसार नेत्र रोगों के कुछ मुख्य कारण इस प्रकार हैं-
(1) गरमी या धूप से सन्तप्त होकर शीतल जल में घुसने से।
(2) बलपूर्वक दूर के या अधिक चमकदार पदार्थ देखने से।
(3) नींद आने पर या समय पर न सोने से।
(4) धूप अथवा अग्नि आदि के अधिक सेवन करने से।
(5) नेत्रों में अधिक धूल या धुआँ जाने से।
(6) आँसुओं का वेग अथवा वमन का वेग रोकने से या बहुत वमन करने से।
(7) खट्टे रसोें का ज्यादा सेवन करने से।
(8) मल-मूत्रादि और अधोवायु के वेग को रोकने से।
(9) शोकजन्य सन्ताप (बहुत दिनों तक रोने) से।
(10) मस्तक में चोट लगने से।
(11) ऋतुचर्या में लिखी विधियों के विपरीत चलने से।
(12) काम-क्रोधादि के कारण पैदा हुई पीड़ा से।
(13) अत्यन्त मैथुन करने से।
(14) बहुत ही बारीक पदार्थ या आजकल कम्प्यूटर में छोटे-छोटे अक्षरों को देखने से।
(15) अनुवांशिक अथवा जन्मजात दृष्टिदोष।
यह सभी चिकित्सा मतानुसार नेत्र रोगों के मुख्य कारण हैं, परंतु ज्योतिषीय दृष्टिकोंण से यदि देखा जाये तो मनुष्य के नेत्र विकार के जो कारण हैं, वे चाहे जन्मजात अथवा अनुवांशिक कारण हों, अथवा इस जन्म में किसी प्रकार के दोष से उत्पन्न कारण हों। इन सभी का विचार ज्योतिष के ग्रन्थों में हमारे ऋषियों ने विस्तार से किया है। आगे की पक्तियों में कुंडली में किस प्रकार के ग्रहयोग होने से किस प्रकार के नेत्र विकार संभव होंगे यह दिया जा रहा है। ज्योतिष में रोग विषय पर अनुसंधान करने वाले विद्यार्थियों के लिये यह ग्रहयोग विशेष सहायक हो सकते हैं-
1. किसी भी लग्न की कुण्डली में लग्न का स्वामी यदि बुध या मंगल की राशि में हो अथवा किसी भी स्थान में बैठकर बुध तथा भौम से दृष्ट हो तो उक्त योगों में उत्पन्न पुरूष नेत्ररोग वाला होता है, ऐसी कुंडली वालों को नेत्ररोगों के कारणों की पहचान हमेशा होनी चाहिये, क्योकि इन जातकों को सामान्य जातकों की तुलना में नेत्र रोगों का अधिक भय होता है।
2. कुंडली के षष्ठ स्थान में शुक्र हो तो दक्षिण नेत्र में, तथा यदि द्वितीयेश या व्ययेश सूर्य हो वा मंगल हो और वह शनि तथा गुलिक से दृष्ट हो तो उषणता, पित्त, कासजन्य रोग या प्रमाद से नेत्ररोग हो सकते हैं।
3. वातप्रकोप से नेत्ररोग-
धने रिपौ मृतौ प्रान्त्ये सौरिभौमेन्दुभास्कराः।
बलवन्तो यदा ते स्युर्दृग्रुक् स्याद्वातकोपतः।।
शनि, मंगल, चन्द्र और सूर्य यदि बलवान होकर कुण्डली में द्वितीय, षष्ठ, अष्टम वा व्यय में हों तो वातप्रकोप से नेत्ररोग हो सकता है।
4. नेत्ररोग-
व्यये कुटुम्बे यदि पुष्पवन्तौ युक्तेक्षितौ मन्दमहीतुताभ्याम्।
नेत्रामयौऽन्त्ये द्रविणे हिमांशौ दृशोर्विकारः कथितो बुधेन्द्रैः।।
द्वादश वा द्वितीय में सूर्य और चन्द्र हों एवं दोनों शनि तथा मंगल से दृष्ट हों तो नेत्ररोग होता है। यदि द्वादश व द्वितीय में चन्द्र हो तो नेत्र विकार कहा है।
5. . अश्रुपात से नेत्ररोग-
दुःस्थे विलोचनविभौ सुकृतेन युक्तेऽव्याजामयैेर्नयनयोरूजमादिशेद्वा।
काव्ये विलग्नमृतिगे खलखेटदृष्टे पीडा मता जनिमतां नयनाश्रुपातात्।।
त्रिक (6, 8, 12 स्थान) में नेत्रेश (द्वितीय तथा द्वादश स्थान का स्वामी) हो, और वे शुभ ग्रह से युक्त न हो, तो अव्याज रोग से पुरूष के नेत्रों में रोग हो सकता है। अष्टम वा लग्न में शुक्र हो और वह पापग्रह से दृष्ट हो तो अश्रुपात (आँसू गिरने) से प्राणियों के नेत्रों में पीड़ा जाननी चाहिये।
6. . नेत्ररोग व दंतरोग-
प्रान्त्ये सोमे वा भुजंगे कृशांगे भाग्ये पुत्रऽर्के मृतिद्यूनयाते। किं तैर्नीचारा तिभागास्तया तैर्वाच्यां पुंसां नेत्ररूग् दन्तरूग्वा।।
व्यय में चन्द्रमा वा राहु हो, त्रिकोण में शनि और अष्टम वा सप्तम में सूर्य हो अथवा वे पूर्वोक्त ग्रह नीचांश वा शत्रु नवांश में वा अस्तगत हों तो पुरूषों को नेत्ररोग वा दन्तरोग कहना चाहिये।
7. अन्य नेत्ररोग-
काव्यात्त्रिके नयनपेऽथ समेऽर्थऽयो स्वेशे समान्दि मृदुभूमिसुतेऽथ साघे।
सौरीक्षिते गिरि किमुग्रगृहे सपापे नेत्रेश्वरांशकपतावुत वित्तनाथे।।
सद्वीक्षिते सदुरिते तनुनायकेऽथो पौराश्रिते क्षितिसुते शयने किमब्जे।
रोगेशिवक्रभवने तनुगेहयाते देहेश्वरो रूधिरविनवनस्थ आभ्याम्।।
दृष्टोऽक्षिरूग्गदगयोर्लय लग्नपत्योर्वा मेऽम्बकेरूगुत भे रूजि दक्षिणे रूक्।
चक्षुर्भपेऽसृजि रवौ मृदुमान्दिदृष्टे पित्तोष्णका सजनितोऽक्षिमदः प्रमादैः।।
(क) शुक्र से त्रिकस्थान 6, 8, 12 स्थान में नेत्रेश (2 तथा 12 स्थान का स्वामी) हो तो नेत्रविकार होता है।
(ख) द्वितीयेश यदि शुक्र से युक्त हो तो।
(ग) द्वितीयेश यदि गुलिक, शनि तथा मंगल से युक्त हो तो।
(घ) नेत्रस्थान में पापग्रह हों और वे शनि से दृष्ट हों तो।
(च) नेत्रेश के नवांश का स्वामी यदि पापग्रह से युक्त होकर पापग्रह की राशि में हो तो।
(छ) द्वितीयेश यदि शुभग्रह से दृष्ट हो और लग्नेश यदि पापग्रह से युक्त हो तो।
(ज) लग्नगत मंगल शयनावस्था में हो तो।
(ट) षष्ठेश चन्द्रमा यदि लग्नगत विषमोदय राशि मेें हो तो इन ग्रहों की दशा अथवा अवस्था में प्राणियों के नेत्रों में पीड़ा का योग जानना चाहिये।
परमात्मा ने हर प्राणी के शरीर में दो सुंदर नेत्रों की रचना की है, इन सुंदर नेत्रों की स्थापना ईश्वर ने अपनी सुन्दर रचना “सृष्टि” का अवलोकन करने तथा अपने हितों की रक्षा करने के लिये मानव शरीर में की है। साथ ही ईश्वर ने इन नेत्रों में एक विशेष प्रकार की अलौकिक शक्ति भी…