लघुपराशरी -8
द्वितीयेश और द्वादशेश –
Dr.R.B.Dhawan (Guruji),
Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience.
लग्नाद्वययद्वितीयेशौ परेषां साहचर्ययतः।
स्थानान्तरानुगुण्येन भवतः फलदायकौ ।। ८।।
श्लोक नंबर 8 की व्याख्या करते हुए आचार्य कहते हैं-
लग्न स्थान से द्वादश तथा द्वितीय दूसरे स्थान दूसरे ग्रहों के सहचर से तथा अपने स्थानांतरण यानी अन्य स्थानों में (जैसे स्थान में इनकी स्थिति हो) होने के अनुसार ही अपना शुभ अथवा अशुभ फल देते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि वे अपने स्वभाव के अनुसार शुभ या अशुभ फल नहीं देते जिस प्रकार के शुभ या अशुभ स्थान में इन स्थानों के स्वामीयों की स्थिति रहती है, तथा जिस प्रकार के शुभ या अशुभ भावेशों के साथ इनकी स्थिति होती है, अथवा जिस दूसरे स्थान के यह स्थान के स्वामी होते हैं, (वह राशि भी उनके लिए महत्वपूर्ण है) उस जैसा शुभ या अशुभ फल देने लग जाते हैं।
भावार्थ है कि- द्वितीयेश के साथ जो ग्रह रहता है, वह उसी के अनुसार ही फल देते हैं, यदि बहुत ग्रह उसके साथ में हों तो, उनमें जो बली हो उसके अनुसार ही फल देते हैं। यदि कोई ग्रह साथ में ना हो तो जिस अन्य स्थान का स्वामी वह ग्रह (द्वितीयेश-द्वादशेष) होता है, उसके अनुसार ही अपना फल देने लगता है।
तथा जो दूसरे स्थान का स्वामी नहीं हो जैसे सूर्य या फिर चंद्रमा तो ऐसे ग्रह जिस भाव में बैठे हों, उस भाव के अनुसार अपना फल देते हैं, यदि किसी का योग नहीं हो रहा, तथा अन्य स्थान का स्वामी भी नहीं हो, और अपने स्थान में ही स्थित हो तो, उस हालात में अपने स्वभाव के अनुसार ही शुभ या अशुभ फल प्रकट करते हैं।
जो धन स्थान का मालिक (धन रखने वाला) ग्रह है, उसके साथ यदि पापी दुष्ट चोर आदि रहता है तो, उसके धन को अवसर पाकर नष्ट कर सकता है, यदि उसके साथ कोई शुभ या अच्छे स्वभाव वाला (शुभचिंतक ग्रह) जो शुभ सोचने वाला है तो, वह रहता है तो, समय पर उसके धन को बढ़ाने और बचाने में उसके लिए वह सहायक होता है। इसी प्रकार धन स्वामी का जैसा सहचर्य हो उसके के अनुसार फल मानना चाहिए।
तथा जो ग्रह व्ययशील हैं, (खर्चीले स्वभाव के हैं) उनके साथ जैसे सरल स्वभाव वाले या फिर पापी लोग रहते हैं, उसी अनुसार वह खर्च करने लग जाते हैं। जिस तरह व्यय भावेश के साथ जिस प्रकार का शुभ या अशुभ स्वामी ग्रह हो, वैसे स्थान पर द्वादशेश खर्च करने लग जाता है।
तब यहां पर आचार्य संबंधों का वर्णन करते हुए कहते हैं- 1. साथ में रहने वाला ग्रह। 2. परस्पर राशि स्थिति। 3. परस्पर दृष्टि सम्बंध। 4. साधर्म सम्बंध।
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द्वितीयेश और द्वादशेश – Dr.R.B.Dhawan (Guruji),Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience. लग्नाद्वययद्वितीयेशौ परेषां साहचर्ययतः।स्थानान्तरानुगुण्येन भवतः फलदायकौ ।। ८।। श्लोक नंबर 8 की व्याख्या करते हुए आचार्य कहते हैं-लग्न स्थान से द्वादश तथा द्वितीय दूसरे स्थान दूसरे ग्रहों के सहचर से तथा अपने स्थानांतरण यानी अन्य स्थानों में (जैसे स्थान में…