लघुपराशरी -11

कुजस्य कर्मनेतृत्वप्रयुक्ता शुभकारिता।
त्रिकोणस्याअपि नेतृत्वे न कर्मेशत्वमात्रतरू।।१२।।

कुज (नैसर्गिक पाप ग्रह मंगल) के कर्मेश (केन्द्रेश) होने में जो शुभकारीता कही गई है, वह त्रिकोणाधिपति होने से ही समझनी चाहिए, केवल केंद्रेश होने से ही नहीं। अर्थात केवल केंद्रेश मात्र होने से उसका स्वाभाविक पापत्व मात्र नष्ट होता है, अतः केंद्रपति होकर यदि त्रिकोणपति भी हो जाए तो, उसमें शुभत्व आ जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि, स्वाभाविक पाप ग्रह यदि केंद्रपति होकर त्रिषडाय पति भी हो तो, तभी पापकारक होते हैं। पाप ग्रहों में केंद्राधिपति होने से इतना ही शुभत्व आता है, कि वह अपने पापफल को नहीं दे पाते हैं, उस हालत में यदि वह किसी त्रिकोण स्थान का भी स्वामी हो जाए तो, उसमें शुभफलप्रद होना उचित ही है।

यद्यद्भावगतो वाअपि यद्यद्भावेशसंयुतौ।
तत्तत्फलानि प्रबलौ प्रदिशेतां तमोग्रहो।।१३।।

राहु और केतु जिस जिस भाव में होते हैं, और जिस जिस भावेश के साथ रहते हैं, उसी के अनुसार शुभ या अशुभ फल देते हैं। राहु और केतु ग्रहण के द्वारा सूर्य और चंद्र के विमर्दक होने के कारण प्रबल और पाप ग्रह माने गए हैं, तो भी आकाश में अपने बिंब के अभाव होने के कारण स्वातंत्र्य से अपने स्वभाव अनुसार फल नहीं दे सकते। कारण कि आकाश स्थित ग्रह और नक्षत्रों के बिंब के परस्पर संबंध से ही पृथ्वी पर स्थित शरीर धारियों को शुभ-अशुभ फल प्राप्त होते हैं। राहु और केतु तो सूर्य चंद्रमा के मार्ग के संपात बिंदु के रूप हैं, बिम्ब हीन हैं, इस लिये जिस समय जिस जिस राशि में, अथवा जिस जिस भावेश के साथ रहते हैं, उसी राशि अथवा भावेश के बिंब के स्वभाव अनुसार शुभ या अशुभ फलकारक कहे गए हैं।

कुजस्य कर्मनेतृत्वप्रयुक्ता शुभकारिता।त्रिकोणस्याअपि नेतृत्वे न कर्मेशत्वमात्रतरू।।१२।। कुज (नैसर्गिक पाप ग्रह मंगल) के कर्मेश (केन्द्रेश) होने में जो शुभकारीता कही गई है, वह त्रिकोणाधिपति होने से ही समझनी चाहिए, केवल केंद्रेश होने से ही नहीं। अर्थात केवल केंद्रेश मात्र होने से उसका स्वाभाविक पापत्व मात्र नष्ट होता है, अतः केंद्रपति होकर यदि त्रिकोणपति भी हो जाए…