लघुपराशरी -9
अष्ठमेश –
Dr.R.B.Dhawan (Guruji),
Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience.
भाग्यव्ययाधिपत्येन रन्ध्रेशो न शुभप्रदः।
स एव शुभसन्धाता लग्नाधीशोेऽपि चेत्स्वयम् ।।९।।
श्लोक नंबर 9 की व्याख्या करते हुए आचार्य वराहमिहिर बताते हैं-
1. अष्टम स्थान का स्वभाव कैसा होता है? अष्टमेश भाग्य का व्ययाधीश अर्थात भाग्य का व्यय करने वाला होने के कारण शुभ नहीं होता। भाग्य स्थान का व्ययाधीश होने के कारण अष्टमेश अशुभ फल प्रदान करता है। परंतु यदि वह लग्न का स्वामी भी हो तो, अशुभ होने पर भी अशुभ फल नहीं करता।
2. अथवा अष्टमेश केवल अष्टमेश ही हो, (किसी दूसरे स्थान का स्वामी ना हो) तो, भी वह अशुभ फल कारक नही होता।
3. अष्टमेश लग्न का स्वामी भी हो, अभिप्राय यह है कि, त्रिकोण 1-5-9 शुभ स्थान माने गए हैं, इनमें 5-9 की अपेक्षा लग्न थोड़ा कम शुभ होता है, अष्टमेश यदि लग्नेश का भी स्वामी हो तो अशुभकारक नहीं होता है।
अष्टमेश यदि पंचमेश या नवमेश भी हो तो, बात ही क्या?
इससे स्पष्ट हुआ कि अष्टमेश अशुभकारी है, यदि वह किसी त्रिकोण स्थान का स्वामी भी हो तो अशुभकारी न होकर कुछ शुभकारक भी हो जाता है।
इससे यह सिद्ध होता है की अष्टमेश यदि त्रिषडायादि अशुभ स्थान का भी स्वामी हो तो, विशेष अशुभकारक होता है।
तथा यदि किसी दूसरे स्थान का स्वामी ना हो तो जैसे- सूर्य और चंद्रमा को अष्टमेशत्व दोष प्रबल नहीं कहा गया। समान्य अशुभकारक ही होता है।
यहां ग्रंथकार स्वयं ही एक आशंका को व्यक्त करते हुए उस आशंका का स्वयं ही निवारण करते हैं-
आशंका यह है कि, यदि भाग्य के व्ययाधिपति होने के कारण अष्टमेश अशुभ फल देने वाला होता है तो, फिर धन स्थान के व्यायाधिपती होने से लग्नेश भी क्यों शुभकारी होता है? इस शंका का समाधान बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं –
1. लग्नेश धन स्थान का व्याधिपति है, धन शरीर रक्षा या शरीर की आवश्यकता हेतु खर्च किया जाता है तो, इसलिए लग्नेश अपने ही धन का व्ययकारक हुआ, यह सही ही है। इसमें अशुभ कुछ भी नहीं है।
2. तृतीय स्थान सहज, पराक्रम तथा आयु का स्थान है, उसका व्ययाधिपति द्वितीयेश है, यह द्वितीयेश तृतीयेश (अष्टम से अष्टम) आयु के व्ययकारक स्थान का सवामी होने से मारक हुआ।
3. चतुर्थ सुख का स्थान है, यह सुख के साधनों का स्थान है। इस का व्ययाधीश तृतीयेश होता है। इसलिए सुख के व्ययकारक होने से तृतीयेश को अशुभ कहा गया है।
4. पंचम स्थान विद्या का स्थान उसका व्ययाधिपति चतुर्थेश है, चतुर्थेश शुभ ग्रह होकर विद्या का हानिकारक नहीं हो सकता। पापी ग्रह होकर विद्या का नाश कारक भी नहीं हो सकता। इसलिए शुभ ग्रह चतुर्थेश हो या अशुभकारक, ग्रह चतुर्थेश शुभ या अशुभ नहीं हो सकता।
5. षष्ठ शत्रु स्थान है, उसका व्ययाधिपति पंचमेश है, वह (पंचमेश) शत्रु के लिए नाश कारक होने के कारण शुभ कहा गया है।
6. सप्तम स्थान स्त्री (लाईफ पार्टनर) का स्थान है, उसका व्ययाधिपति षष्ठेश है। यदि वह सप्तम भाव के लिए व्ययकारक है, इसीलिए वह अशुभ है।
7. अष्टम आयु का स्थान है, और उसका व्ययकारक होने से सप्तमेश को मारक कहा गया है।
8. नवम भाग्य का स्थान है, और उसका व्ययकारक होने के कारण अष्टमेश को अशुभ कहा गया है।
9. दशम स्थान कर्म का स्थान है, कर्म संसार का बंधन है, अतः कर्म बंधन स्थान का व्ययाधीश होने से नवमेश सर्वाेत्कृष्ट मुक्तिदाता है, इसलिए इसको शुभ कहा गया है।
10. एकादश स्थान लाभ का स्थान है, उसका व्ययाधिपति दशमेश है, यदि शुभ ग्रह होकर लाभ का व्यय या हानिकारक हुआ तो अनुचित कारक होने से शुभ कारक नहीं कहा गया। और दशमेश पाप ग्रह होकर लाभ का नाश कारक हुआ, तो अपने उचित कर्तव्य के कारण अशुभकारक नहीं कहा गया है।
11. द्वादश स्थान व्यय का स्थान है, और उसका व्ययाधिपति एकादशेश है, वह व्यय के नाश करने या (अचित व्यय नहीं होने देने) के कारण कष्ट कारक होता है, क्योंकि आमदनी कराने वाला ही यदि खर्चा नहीं करने देगा तो, अन्न-वस्त्र या भौतिक वस्तुएं मिलना कठिन हो जाएगा। इसलिए एकादशेश को अशुभ माना गया है।
इस प्रकार से भी अगर सभी भावेशों के लिए विचार करते हैं तो, यह सिद्ध हो जाता है कि, त्रिकोण 1-5-9 स्थानों के स्वामी शुभ कारक होते हैं।
त्रिष्डायाधीश 3-6-11 के स्वामी पाप फलदायक होते हैं।
केंद्र 4-7-10 के स्वामी शुभ ग्रह हों तो, शुभ नहीं और पाप ग्रह हो तो, अशुभ कारक नहीं होते।
दूसरे बारहवें और आठवें के स्वामी अपने सहचर और स्थानांतरण के अनुरूप ही फल देते हैं।
इस तरह से यह भावेशों में 4 प्रकार के तत्कालिक स्वभाव या गुण होते हैं।
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सम्बंधित वीडियो लिंक :- https://youtu.be/PFg4rDsUSk4
अष्ठमेश – Dr.R.B.Dhawan (Guruji),Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience. भाग्यव्ययाधिपत्येन रन्ध्रेशो न शुभप्रदः।स एव शुभसन्धाता लग्नाधीशोेऽपि चेत्स्वयम् ।।९।। श्लोक नंबर 9 की व्याख्या करते हुए आचार्य वराहमिहिर बताते हैं- 1. अष्टम स्थान का स्वभाव कैसा होता है? अष्टमेश भाग्य का व्ययाधीश अर्थात भाग्य का व्यय करने वाला होने के कारण…