कैसे प्रभावित करते हैं, वक्री ग्रह ?
Dr.R.B.Dhawan (Guruji), Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience
वक्री ग्रह- सम्बंधित वीडियो का लिंक :- https://youtu.be/lZtzDGodw2s
ज्योतिष के ग्रंथों में वक्री ग्रहों पर बहुत ही कम लिखा गया है। इसी लिए देखा जाता है कि, फलादेश के समय ग्रहों की वक्रता को अनदेखा ही कर दिया जाता है। वक्री ग्रहों के प्रति कुछ लोगों में यह भ्रम भी है कि वक्री ग्रह अपने निश्चित भ्रमण मार्ग पर विपरीत दिशा में भ्रमण करने लगता है। इस लिये वह वक्री कहलाता है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। कोई भी ग्रह कभी भी विपरीत दिशा में भ्रमण नहीं करता, ग्रह हमेशा एक ही दिशा में गतिशील रहता है। हमें ही उनका उलटे गतिशील होने का भ्रम मात्र होता है।
वक्री ग्रहों का प्रभाव- ‘होरा सार’ के अनुसार वक्री गुरु बहुत अधिक बलवान माना गया है, परन्तु इस स्थिति में वह अपनी शत्रु राशि में नहीं होना चाहिए। यहां यही प्रभाव विपरीत होने लगता है।
‘जातक तत्त्व’ के अनुसार भी शुभ राशि तथा शुभ स्थान में स्थित वक्री ग्रह राज्य तथा धन का सुख देने वाला होता है। शत्रु राशि में यही ग्रह आर्थिक हानि करता है। कभी-कभी वक्री ग्रह की दशा-अन्तर्दशा जातक/जातिका को मान-सम्मान दिलवाती है, तथा धन, सुख आदि प्रदान करती है।
‘सारावली’ में कल्याणवर्मा ने लिखा है- शत्रु राशि में स्थित वक्री ग्रह जातक के लिये बिना कारण भ्रमण करवाने वाला तथा अरिष्टकारक सिद्ध होता है। ‘संकेतनिधि’ के अनुसार वक्री मंगल अपने स्थान से तृतीय भाव के प्रभाव को दर्शाता है।
इसी प्रकार गुरु अपने से पंचम, बुध, चतुर्थ, शुक्र सप्तम तथा शनि नवम भाव के फलों को प्रदान करते हैं। ‘जातक पारिजात’ में स्पष्ट लिखा है कि, वक्री ग्रह के अतिरिक्त शत्रु भाव में किसी अन्य ग्रह का भ्रमण अपना एक तिहाई फल खो देता है।
‘उत्तर कालामृत’ के अनुसार वक्री ग्रह की दशा अवधि ठीक वैसी हो जाती है, जैसे कि ग्रह के अपने उच्च अथवा मूल त्रिकोण राशि में होने से होती है। ‘फलदीपिका’ में मंत्रेश्वर महाराज का कहना है कि किसी ग्रह की वक्री गति उस ग्रह के चेष्टा बल को अत्यधिक बढ़ा देती है।
‘कृष्णामूर्ति पद्धति’ में प्रश्न के समय संबंधित ग्रह या वक्री ग्रह के नक्षत्र में अथवा सम्बन्ध में रहना नकारात्मक उत्तर का प्रतीक है। यदि कोई संबंधित ग्रह वक्री नहीं है, परन्तु वक्री ग्रह के नक्षत्र में प्रश्न के समय स्थित है, तो वह कार्य तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि वह ग्रह वक्री से मार्गी नहीं होता है।
आचार्य वेंकटेश की ‘सवार्थ चिन्तामणि’ में वक्री ग्रह की दशा-अन्तर्दशा के फल का बहुत सुन्दर विवरण मिलता है- मंगल ग्रह यदि वक्री है, तथा उसकी दशा अथवा अन्तर्दशा चल रही हो, तो जातक/जातिका अग्नि, शत्रु आदि के भय से त्रस्त रहेगा। ऐसे में वह जातक एकान्त वास अधिक चाहेगा।
वक्री बुध अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभफल करता है। वह जीवन साथी, परिवार आदि का सुख देता है। धार्मिक कार्यों में उस जातक/जातिका की रूचि पैदा हो जाती है। वक्री गुरु पारिवारिक सुख-समृद्धि देता है, तथा शत्रु पक्ष पर विजय करवाता है, परंतु अभिमान भी साथ-साथ देता है, वह जातक ऐश्वर्यमय जीवन बिताता है।
वक्री शुक्र मान-सम्मान का को बढा देता है, वाहन सुख तथा सभी प्रकार के लग्जरी के सुख-सुविधा वाले अनेक साधन वह जातक जुटा लेता है। वक्री शनि अपनी दशा-अन्तर्दशा में बिना मतलब का खर्च करवाता है। जातक को अपनी योजनाओं और प्रयासों में सफलता नहीं मिलने देता। ऐसा शनि मानसिक तनाव, शारीरिक और आर्थिक दुःख भी देता है। अनेक ग्रंथों के अध्ययन-मनन के बाद वह निष्कर्ष निकलता है कि, यदि कोई ग्रह वक्री है, और साथ ही साथ बलहीन भी है तो, फलादेश में वह बलवान ही सिद्ध होगा।
इसी प्रकार बलवान ग्रह यदि वक्री है तो, अपनी दशा-अन्तर्दशा में वह निर्बल ही सिद्ध होगा। शुभाशुभ का फलादेश अन्य कारकों पर भी निर्भर करेगा।
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि किसी ग्रह की वक्रता का अच्छा प्रभाव अथवा दुष्प्रभाव उसी भाव के लिए ही विचार किया जाता है, जहां पर वह स्थित है, परंतु यह अशुद्ध फलादेश होगा। वक्रता का शुभाशुभ फल उससे पहले वाले भाव से सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
उदाहरण के लिए यदि कोई ग्रह नवम भाव में स्थित होकर वक्री है तो, प्रभाव देने के समय फल वह अष्टम भाव के अनुसार ही देगा। कहां तो यह ग्रह नवम भावगत होने के कारण भाग्य प्रदाता माना जा रहा था और वक्री होने के कारण कहां यह अशुभ बन गया।
इसी प्रकार से जब अन्य ग्रहों की वक्रता तथा उचित भाव का अध्ययन किया जायेगा तभी फलादेश ठीक बैठेगा। अक्सर देखने में आता है कि, गोचर में भ्रमण करते हुये जब कोई ग्रह विशेषकर- गुरु जब वक्री अथवा मार्गी होता है तो, किसी न किसी व्यक्ति, देश, मौसम आदि को शुभ अथवा अशुभ रूप से अवश्य प्रभावित करता है।
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