भाग्योदय का समय
भाग्योदय का समय
1. जन्म कुंडली में भाग्याधिपति (नवम स्थान का स्वामी) के केन्द्र में रहने से जीवन की प्रथम ही अवस्था में भाग्य की उन्नति होती है और त्रिकोणगत अथवा उच्चगत रहने से मध्य अवस्था में जातक का भाग्यउदय होता है। केन्द्र और त्रिकोण को छोड़कर अन्य स्थानों में स्वक्षेत्रगत अथवा मित्रगृही होने से वृद्धावस्था में भाग्योदय होता है। परन्तु स्मरण रहे कि यह एक साधारण विधि है। इसमें यह देखना चाहिये की भाग्य स्थान में यदि किसी ग्रह की मूलत्रिकोण राशि है, और उस राशि का स्वामी कुंडली के किसी केन्द्र स्थान में होता है, तब जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में ही भाग्योदय होता है।
2. इसी प्रकार एक विधि यह भी है कि यदि द्वादश राशि को तीन खण्डों में बाँटा जाये तो चार राशियों का एक खंड होगा। लग्न, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ यह है प्रथम खंड। पंचम, षष्ठ, सप्तम और अष्टम यह द्वितीय खंड तथा नवम, दशम, एकादश और द्वादश का तृतीय खंड हुआ।
बृहस्पति और शुक्र जो कि समेशा शुभकारी ग्रह हैं, और बुध भी शुभी ग्रह के साथ या अकेला शुभ ही है परन्तु पापयुक्त रहने से शुभ नहीं कहलाता। इसी प्रकार क्षीण चन्द्रमा नही हो तो बलवान चंद्रमा भी शुभ ग्रह माना जाता है।
अब यह देखना है कि कुंडली के किस खंड में शुभग्रह अधिक हैं, या फिर सभी तीनों खंडों में शुभग्रह बराबर हैं। जिस खंड में शुभग्रह की अधिकता होगी वह जीवन खंड उस जातक का विशेष सुखमय होगा और यदि तीनों खंड़ों में शुभ ग्रह बराबर हैं तो, जीवनभर जातक का जातक जीवन एक जैसा रहेगा।
उदाहरण कुंडली में प्रथम खंड धनु से मीन प्रर्यन्त है। मीन में चद्रंमा शुभ ग्रह है। द्वितीय खंड मेष से कर्क प्रर्यन्त है। उसमें एक शुभ ग्रह है। तृतीय खंड सिंह से वृश्चिक तक है। उसमें भी एक शुभ ग्रह शुक्र है। बुध भी उसी खंड में है परन्तु सूर्य के साथ रहने से पाप हो गया है। परिणाम यह होगा कि इस जातक का जीवन साधारणतः जन्म से मृत्यु प्रर्यन्त एक जैसा सुखमय रहेगा।
3. यदि लग्नेश शुभ भाव में हो, और उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो, अथवा यदि लग्नेश पंचम स्थान में हो, या लग्न में हो, लग्नेश नवम स्थान में या नवमेश पंचम स्थान में हो तो जातक का भाग्य सोलह वर्ष की आयु के बाद उदय होता है।
4. यदि लग्न शुभ राशि का हो और उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि भी हो परन्तु लग्न में कोई पापग्रह न हो तो जातक बाल्यकाल से ही सुखी होता है। यदि लग्न में एक से अधिक पाप ग्रह हो तो जातक जीवन के अधिकांश भाग में दुःखी रहता है।
5. यदि लग्नेश का नवाँशेश अर्थात लग्न का स्वामी जिस नवांश में हो, उस नवांश का स्वामी ग्रह लग्न में अथवा त्रिकोण या एकादश भाव में बली होकर स्थित हो, अथवा उच्च राशि का हो तो जातक तीस वर्ष की अवस्था के उपरांत भाग्यशाली होता है।
6. भाग्याधिपति अर्थात् नवमेश जिस राशि में रहता है, उस राशि के स्वामी को ‘भाग्यकर्त्ता’ ग्रह कहते हैं। जैसे, उदाहरण कुंडली में नवमेश सूर्य कन्या राशि में है, और कन्या का स्वामी बुध है। इस लिये इस जातक का ‘भाग्यकर्त्ता’ ग्रह बुध हुआ।
यदि सूर्य ‘भाग्यकर्त्ता’ ग्रह होता है तो, उस जातक की भाग्य उन्नति 22 वर्ष के पूर्व होती है। इसी प्रकार मंगल होने से 28 वर्ष, बुध से 32 वर्ष, बृहस्पति 16 वर्ष, शुक्र से 24 वर्ष और शनि के ‘भाग्यकर्त्ता’ होने से 36वें वर्ष से भाग्योन्नति होती है। यहाँ तक भी देखा गया है कि यदि इसके पहले अच्छी दशा अर्न्तदशा भी आ जाये तो भी भाग्य का उदय तो इन ग्रहों के समय के बाद से ही आरम्भ होता है। उदाहरण कुंडली का ‘भाग्यकर्त्ता’ बुध है। इस कारण जातक की भाग्योन्नति 32 वर्ष के बाद होगी। वास्तव में ही इस जातक की भाग्य उन्नति 28वें वर्ष से अरम्भ हुई थी।
भाग्योदय का समय 1. जन्म कुंडली में भाग्याधिपति (नवम स्थान का स्वामी) के केन्द्र में रहने से जीवन की प्रथम ही अवस्था में भाग्य की उन्नति होती है और त्रिकोणगत अथवा उच्चगत रहने से मध्य अवस्था में जातक का भाग्यउदय होता है। केन्द्र और त्रिकोण को छोड़कर अन्य स्थानों में स्वक्षेत्रगत अथवा मित्रगृही होने से…