कठोपनिषद् -1

https://youtu.be/2gQpEMCHxXw

Dr.R.B.Dhawan (Guruji), Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience.

कठोपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता शाखा के अंतर्गत आता है।

कठोपनिषद, अध्याय-1, प्रथम वल्ली-
परम सुख की इच्छा करने वाले वाजश्रवा उद्दालक ने सर्वमेध यज्ञ किया और उस में अपना सब धन दे दिया। उसका नचिकेता नामक एक पुत्र था। यज्ञ में जब ऋत्विज लोग दान दक्षिणाएं ले जा रहे थे, उस समय वह उनका पुत्र छोटा बच्चा ही था उस समय उस बालक के मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई, उसने सोचा कि मेरा यह पिता, जो जल पी नहीं सकती, जो चारा खा नहीं सकतीं, जो दूध नहीं देतीं और जो बंध्या अर्थात् इन्द्रिय रहित सी हो गयी हैं, ऐसी गायो का दान करने वाला है।
यह विचार करते हुए उद्दालक के पुत्र नचिकेता ने अपने पितासे पूछा कि हे पिता ! मुझे किसको दोगे? इस तरह दूसरी और तीसरी बार भी कहा। तब पिता ने नचिकेता को क्रोधित होकर कहा कि तुझे मैं मृत्यु को दूंगा।
कठोपनिषद् के इस दृष्टांत में उद्दालक ऋषि वाजश्रवा है। वाज-श्रवा का अर्थ अन्नदान करने से जिसका यश चारों ओर फैला है अर्थात् अन्नदान करनेवाला, अपने पास के हर अश का दान करके यज्ञ करनेवाला। यह ऋषि उन्नति, अभ्युदय, श्रेष्ठ स्थिति की प्राप्ति की इच्छा करता था, और उस अवस्था को प्राप्त करने के लिये उन्होंने अपने सर्वस्व का दान करके सर्वमेध यज्ञ करने का प्रबंध किया था। इस यज्ञ को करने वाले की बडी ख्याती होती है, और उसे श्रेष्ठ अवस्था प्राप्त होती है। ऐसा शतपथ ब्राह्मण में भी कहा गया है।
जो सर्वमेध यज्ञ में सर्वस्व अर्पण करता है वह श्रेष्ठ होता है। इस तरह मैं भी श्रेष्ठ बनूंगा ऐसी इच्छा इस बाजश्रवा ऋषि के मन में उत्पन्न हुई। ऐसी इच्छा करना प्रत्येक मनुष्य के लिए कल्याणकारी है। इस तरह बाजश्रवा ऋषि की इच्छा में भी कोई दोष नहीं था। परंतु सर्वदान में वह वृद्ध, निर्बल गौवें भी देने लगा और ऐसी गौओं के दान देकर यज्ञ से उत्कर्ष होगा ऐसा वह मानने लगा था, यह मानना उसका बड़ा भारी दोष लाने वाला था। यज्ञ से उन्नति अवश्य होती है, परंतु यज्ञ में जो समर्पण करना दो वह उत्तम होना चाहिये। तब सुफल की प्राप्ति हो सकती है। जो भी दान देना हो वह उपयोगी हो, उत्तम हो, तथा जिसको देना हो उसके उपयोग में आनेवाला होना चाहिये। वृद्ध, और चारा भी चबा न सकने वाली, दूध न देने वाली गौए दान लेने वाले का भला क्या होगा। पर यह बात वाजश्रवा के मन मे नहीं आयी और वह वृद्ध गौओं का दान देता रहा।
तब उसका पुत्र नचिकेता वहीं था। उसके ध्यान में यह बात आई और वह मन में सोचने लगा कि यह मेरा पिता क्या कर रहा है। इससे तो उन्नति होने के स्थान पर अवनति होगी। इससे दुःखपूर्ण अवस्था की प्राप्ति होगी। यह तो सर्वथा बुरा कर्म हो रहा है। गौ का दान करना अच्छा है, पर वह गौ सवत्सा और दूध देने वाली होनी चाहिये। अच्छी वस्तु का दान करना चाहिये। अतः मेरे पिता का यह दान हानि कारक है। यद्यपि नचिकेता कुमार था, तथापि उसकी श्रद्धा और बुद्धी अच्छी थी। उसने पिता से पूछा कि पिताजी ! आप मुझे किसको अर्पण करोगे ! दो तीन बार पिताजी से पूछने पर पिता क्रोधित होकर बोले कि मैं तुझे मृत्यु को दूंगा। देखा जाए तो, बाजश्रवा में पहला दोष तो निर्बल गायों का दान करना और दूसरा दोष यह था कि वे क्रोधी थे। यह दृष्टांत महाभारत, तैतरीय ब्राह्मण, कठोपनिषद तीनों में मिलता है, और तीनों में ही वाजश्रनवा अर्थात उद्दालक को क्रोेधी ही बताया गया है। यज्ञकर्ता अर्थात परोपकार का कार्य करने वाले को क्रोध से दूर रहना चाहिये। और शान्ति पूर्वक अच्छी और उपयोगी वस्तु का यज्ञ में समर्पण करना चाहिये। वाजश्रवा में ये दो दोष थे।
निरुपयोगी गौओं का दान करके में बडा दानी बनूंगा ऐसा वह सझता था, और पुत्र के पूछने पर वह क्रोध भी करने लगा था। यज्ञ कर्ता को इन दोषों से बचना चाहिये। पिता को क्रोधित हुए देखकर नचिकेता को आश्चर्य हुआ और वह मन ही मन सोचने लगा । नचिकेता पिता का वचन सुनकर अपने मन में सोचता है कि मैं बहुत शिष्यों में अग्रणी रहता हूं, तथा बहुतों में में मध्यम भी रहता हूं। परंतु मैं किसी भी दृष्टि से अधम नहीं हूं। अतः मेरा पिता मुझे यम को सौंप कर कौन सा भला कर्तव्य पालन कर रहे हैं।
नचिकेता सोचने लगा कि मुझे यम को देने से क्या बनेगा? यम को देने का दण्ड मुझे क्यों दिया जा रहा है। फिर सोचने लगा मनुष्य अपने कर्म विपाक के अनुसार भोग प्राप्त करता है। इसलिए शायद मुझे मृत्यु दण्ड पिताजी ने दिया होगा, वह भोगना ही होगा। या फिर वह मेरे पूर्व कर्मानुसार ही होगा। जो भी हो, मैं यम के पास जाता हूं, और वहां मैं धैर्य से जो होगा उसका सामना करता हूं । अब मृत्यु से भी मैने डरना नहीं है। इस प्रकार विचार करते हुए निडर होकर नचिकेता यम के पास जाता है।
नचिकेता यम के घर अर्थात यमपुरी गया। यम को धर्मराज भी कहते हैं। क्योकि वह आदर्श गृहस्थ भी हैं। वह कभी अशुद्ध अथवा अधार्मिक आचरण नहीं करते। पर ऋषिकुमार नचिकेता जिस समय यम धर्मराज के पास गया, उस समय यम यमलोक में नहीं थे। यमलोक वालों ने भी नचिकेता से अधिक पूछताछ नहीं की, इस कारण उस ऋषिकुमार को यमलोक में तीन दिन और तीन रात्री तक भूखा रहना पड़ा। धर्मराज के घर ब्राह्मण अतिथि तीन दिन भूखा रहे यह तो बडा घोर अनर्थ है। धर्मराज के सभी पुण्यों का क्षय इससे होता है। क्योकि यह तो स्वयं धर्मराज के घर यमलोक में ही हुआ !! जो सबका न्याय करता हैं, उसी के घर ऐसा हुआ !! जब यम यमलोक आए, अर्थात अपने घर आये; तब उनको पता लगा कि मेरे घर एक ब्राह्मण कुमार अतिथि रूप से आया है, और वह तीन दिन भूखा रहा है। जलपान आदि पूछकर उसका सत्कार नही किया गया यह तो घर को आग लग जाने के समान घोर अनर्थ हुआ है। अतः इस अतिथि रूप अग्नि की शान्ति तो करनी ही होगी, नहीं तो यह अग्नि मेरा सब पुण्य जलाकर भस्म कर देगी। किसी के द्वार पर ब्राह्मण अतिथि तीन दिन भूखा रहे, यह किसी भी गृ्रहस्थ के लिए अच्छा नहीं है, और मैं तो धर्म की व्यवस्था करने वाला देवराज का बडा अधिकारी हूं। अतः मुझे तो यह सर्वथा उचित नही है। अतः इस अतिथि को पहले प्रसन्न करने का यत्न करना होगा। यह सोचकर यम ब्राह्मण कुमार नचिकेता के सन्मुख जाकर कहते हैं –
हे ब्राह्मण कुमार हम मे अतिथ्य सत्कार न होने से बडी भूल हुई। तुम नमस्कार करने योग्य अतिथि मेरे घर में बिना भोजन के जो तीन रात्री तक रहे हो, इस कारण हे ब्राह्मण! प्रत्येक दिन के बदले एक-एक वरदान, ऐसे तीन वरदान मांग लो। जिससे मेरे लिये कल्याणकारी हो। इस दृष्टांत से यह भी शिक्षा मिलती है कि अतिथि सत्कार करने योग्य होता है। यहां यम के द्वार पर आया अतिथि तीन दिन भूखा रहा है। यह गृहस्थ धर्म के अयंत विरुद्ध हुआ हुआ है। इस लिए यम को कुछ न कुछ प्रायश्चित करना उचित लगा। यम ने नचिकेता को प्रसन्न करने के लिये 3 वरदान मांगने के लिए कहा है। इसी प्रायश्चित्त के रूप में यम ने नचिकेता को तीन वरदान दिये। एक-एक दिन के उपवास के बदले एक-एक वरदान दिया। इससे यम ने नचिकेता को प्रसन्न करने का यत्न किया है। यम मानते हैं कि इस से नचिकेता प्रसन्न होगा और यम का कल्याण होगा। इस से यह शिक्षा मिलती है कि बिना अतिथि सत्कार के यम का भी कल्याग नहीं हो सकता, इतना अतिथि सरकार का महत्त्व यहां बताया गया है।
नचिकेता का पहिला वरदान- अब नचिकेता धर्मराज से अपना प्रथम वर मांगता है- हे यम। मैं इन तीन वरों में से पहला वर यह मांगता हूं कि मेरा पिता शान्त और प्रसन्न मन वाला हो, और मेरे प्रति क्रोध रहित व्यवहार करने वाला हो। तुमसे आज्ञा लेकर जब मैं जाऊं तब मेरे साथ वह प्रसन्नचित हों। नचिकेता यह प्रथम वरदान मांगता है। कि मेरा पिता प्रसन्न चित अर्थात् क्रोध रहित होकर मेरे साथ पूर्ववत् प्रेमपूर्ण आचरण करें। नचिकेता को पता था कि मेरे बारंबार पूछने के कारण पिता क्रुद्ध हुए थे, और क्रोधवश होकर उन्होने कहा था कि तुझे मैं यम को देता हूं। यह क्रोध उनका शान्त हो, और वह पूर्ववत् आनन्द प्रसन्न हों, यह इस प्रथम वर से नचिकेता ने मांगा है। यहां पुत्र धर्म बताया है। पिता ने पुत्र पर बेशक क्रोध किया, तो भी पुत्र के लिए उचित नहीं है कि वह अपने पिता पर क्रोध करें। बल्कि क्रोध के उत्तर में क्रोध न करते हुए उनके साथ प्रेमपूर्ण ही व्यवहार करें। पिता को आनन्द प्रसन्न करने का प्रयत्न करें, यही पुत्रधर्म है। नचिकेता का यह प्रथम वरदान सुनकर यम धर्मराज आनन्द से नचिकेता को वरदान देते हैं-
यम कहते हैं- तेरा पिता तुझ से पहिले जैसा बर्ताव करने वाला ही होगा। मृत्यु के मुख से मुक्त होकर आये हुए तुझे जब बह देखेगा, तब क्रोध रहित होकर सुख से रात्री में सोयेगा। हे नचिकेता! जब तू घर जाएगा, तब तेरा पिता उद्दालक बडा प्रसन्न होगा। पुत्र मृत्यु से बचकर आया है। यह देख किस पिता को प्रसन्नता नही होगी। पुत्र मरा था, वह फिर जीवित हुआ, यह देखकर तेरे पिता को बडा आनन्द डोगा। उस का मन अपूर्व शान्ति का अनुभव करेगा, और वह रात्रि में सुखपूर्वक निद्रा का आनन्द लेगा। यह वर तुझे मैं देता हूं। अब दूसरा वर मांग। यह यम का वचन सुनकर नचिकेता दूसरा वरदान मांगता है-
नचिकेता कहता है- स्वर्ग लोक में कुछ भी भय नहीं है, वहां मृत्यु भी नहीं है, वहां वृद्धावस्था से भी कोई डरता नहीं है। भूख और प्यास इन दोनों से पार होकर, शोक से दूर होते हुए प्राणी स्वर्गलोक में सदा आनन्द पूर्वक रहते हैं। सो आप स्वर्ग प्राप्ति कराने वाली अग्नि विद्या का मुझे उपदेश करें। जिससे प्राणी स्वर्ग लोक मै रहने वाले अमरत्व को प्राप्त करते हैं। यह मैं दूसरे वरदान से चाहता हूँ। यहां स्वर्ग लोक अर्थ यह है। जहां आदर्श राज्य शासन व्यवस्था हो, अर्थात् भूमि पर स्वर्ग जैसा वातावरण हो, जहां किसी को किसी से कुछ भी भय नहीं हो। सब निर्भय रहते हों। सब प्राणी निर्भय होकर सुख से अपना अपना व्यवहार करते हों। मृत्यु का भय नहीं हो, अर्थात् वहां अपमृत्यु या रोगादि का भी भय नहीं होगा! आरोग्य व्यवस्था उत्तम होगी। इस लिए वहां कोई भी बुढापे से भयभीत नहीं होगा। आयु बढ जाने पर भी सब स्त्री पुरुष तरुण जैसे रहते हों। इतनी शक्ति, इतना ओज और इतना आरोग्य जहां रहता हो। भूख और प्यास वहां किसी को कष्ट नहीं देती। अर्थात् वहां खान पान का प्रबंध उत्तम रहता है।
सबको उत्तम अन्न और उत्तम पेय पदार्थ प्राप्त होता है। रहने के लिये. स्थान, ओढने के लिये वस्त्र, खाने के लिये अन्न, पीने के लिये रसपान आदि सबका प्रबंध वहां यथा योग्य रहता है, इसलिये वहां किसी को चिन्ता नहीं होती। और चिन्ता न होने से शोक रहित होकर वहां सब आनन्द से रहते हैं। सबको सुरक्षा और निर्भयता की प्राप्ति, अपमृत्यु, रोग, आदि भय से विमुक्त रहने योग्य आरोग्य रक्षा का सुप्रबंध, वृद्ध आयु में भी तरुण जैसा उत्साह रहने योग्य रहन सहन का प्रबंध, खान पान की चिंता न रहना अर्थात् सबको आवश्यक खानपान योग्य समय में प्राप्त होना, आनन्द प्रसन्न होकर सबका रहना सहना होना। यह स्वर्गसुख हैं। अर्थात् यह आदर्श राज्य व्यवस्था है। ऐसी उत्तम राज्य व्यवस्था देवलोक में थी, धरती पर भी यह आदर्श व्यवस्था हो, इस प्रकार इच्छा नचिकेता ने प्रकट की।
जिसकी प्राप्ति का साधन एक मात्र अग्नि विद्या है। वह अग्नि विद्या क्या है, और इसको कैसे प्रदीप्त करते हैं, इसमें किस का हवन किया जाता है, इस विषय में नचिकेता ने यम से पूछा है।
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और इसका उत्तर यम इस प्रकार देते हैं-
हे नचिकेता! अनन्त सुख दायक लोकों को देने वाले, अग्नि विद्या को जानने वाला मैं, तुझे बतलाता हूं, मुझसे उस विषय का ज्ञान तू प्राप्त कर। सभी लोकों का आदि कारण अग्नि को माना गया है। अग्नि विद्या सम्बंधित आवश्यक ज्ञान बताता हूं। इस प्रकार अग्निविद्या का ज्ञान प्राप्त कर नचिकेता ने यम को कह सुनाया था, अर्थात जैसा समझा वैसा उस ज्ञान को दुहरा दिया। तब प्रसन्न हुए यम ने उसे फिर कहा – हे नचिकेता मैं तुझे दूसरा वर, जो तूने ! इस समय मांगा है, देता हूं। इस अग्नि उपासना से स्वर्ग प्राप्ति होती है। यह कहकर यम नचिकेता को एक और अतिरिक्त वरदान देते हैं। इससे अनन्त सुखदायक लोकों की प्राप्ति होती है, यह अग्नि सबका आधार है।
सब मानवी अभ्युदय इसी से शक्ति प्राप्त करके सिद्ध किये जा सकते हैं। यह अग्नि सभी लोकों का आदि है, अर्थात् इस से सब मनुष्यों की सब प्रकार की उन्नति होती है। मनुष्य के अभ्युदय और उत्कर्ष का यह आदि कारण है, इस तरह इसका वर्णन करके इस अग्नि का स्वरूप यम ने नचिकेता को बताया और इस में इष्टिका कितनी लगती है, और उसकी रचना किस तरह की जाती है, इसका भी आवश्यक वर्णन यम ने किया और नचिकता से पूछा कि बेटा यह सब तुम्हारी समझ में आ गया? नचिकेता ने यम को सब बताया, जैसा यम ने कहा था। इस शिष्य के उत्तर से यम बडे संतुष्ट हुए और फिर नचिकेता से कहने लगे। यह अग्नि मानवों की बुद्धि में है। स्वर्ग देनेवाली यह अग्नि मानवों की बुद्धि में रहती है, और वहीं उस को प्रदीप्त करना आवश्यक है। प्रसन्न होकर यम फिर नचिकेता से कहता है-
मैं यहाँ तुझे यह वरदान भी देता हूं कि यह अग्नि तेरे नाम से प्रसिद्ध होगी। इसके अतिरिक्त अनेक रंगो वाली यह माला देता हूं। इसको धारण कर तीन बार जिसने-इस-नाचिकेत अनि में हवन किया है, माता-पिता-आचार्य इन तीनों का संग जिसने किया है, और जो तीनो- अध्ययन, अध्यापन और दान करता रहता है, वह जन्म मृत्यु को पार कर जाता है। तीन बार जिसने इस नाचिकेत अग्नि में इवन किया है, और इन तीनों को ठीक-ठीक जाना है, और ऐसा विद्वान् इस नाचिकेत अग्नि को प्रदीप्त करता है, वह मृत्यु के फासों को दूर फेंक कर शोक से परे होकर, स्वर्गलोक में आनन्द से रहता है। नचिकेता जिसको तूने दूसरे वर वरा है। यह तेरा स्वर्ग देने वाला अग्नि है। सब लोग इस अग्नि को तुम्हारे ही नाम से जानेगे।
नचिकता ! अब तू तीसरा वर मांग नचिकेता की ज्ञान ग्रहण करने की शक्ति देखकर यम बडे प्रसन्न हुए और नचिकेता को और एक वर देने लगे। वह वर यह है कि इस अग्नि का नाम जगत में नचिकेता के नातम से ही प्रसिद्ध होगा। नचिकेता का नाम इस तरह यम की प्रसन्नता से अमर हुआ। यम ने प्रसन्न होकर नचिकेता को अनेक रूपवाली माला दी। अग्नि को नचिकेतां का नाम दिया, और उस शिष्य को सुंदर अनेक रंग रूप वाली माला दी, यह माला ज्ञानतत्त्व मयी माला ही है। न की यह फूलों या रत्नों की माला। बुद्धि में रहने वाले ज्ञानियों के साथ रहने वाली, तत्त्वज्ञान-परंपरा को अबाधित रखने वाली यह ज्ञान माला यम ने नचिकेता को दी, और नचिकेता ने वह धारण की।
अब यम नचिकेता को शान्ति का मार्ग बताते हैं- इस बुद्धि में रहने वाले अग्नि को तीन रूप से जिसने प्रदीप्त किया है। अर्थात् ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेद इन तीन वेदों से जिसने अपनी बुद्धि में रहने वाले ज्ञान रूप अग्नि को प्रदीप्त किया है, तथा माता-पिता और आचार्य इन से अच्छे संबंध बनाए रखकर जिसने उत्तम ज्ञान बढाया है, जो अध्ययन अध्यापन और दान ये तीन कर्म करता रहता है, वह जन्म मृत्यु के पार हो जाता है। इन तीन प्रकारों की और भी व्याख्या हो सकती है- अध्यात्म ज्ञान, आधिभौतिक ज्ञान और आधिदैविक ज्ञान। ये तीन प्रकार के ज्ञान जिसने प्राप्त किये हैं, ज्ञान-कर्म-उपासना से जिसने अपने ज्ञान को बढ़ाया है, वह अपना व्यक्तित्व, राष्ट्रीय तथा लौकिक कर्तव्य करते हुये विकसित करता है, वह मनुष्य जन्म मृत्यु को पार करता है। अर्थात् उसका नाम अमर होता है। इस तरह अनेक प्रकारों से कठोपनिष्द के इस १७वें मन्त्र की व्याख्या की जाती है। कठोपनिषद के दृष्टांत से बुद्धि ज्ञान को बढ़ाना चाहिये, और अपने कर्तव्य करने चाहिये। यही भाव वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय, ज्ञानियों के सत्संग से तथा सद्गुरु के उपदेश सेे प्राप्त होता है, और बुद्धि में स्थित ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित होती है।
कठोपनिषद का दृष्टांत ययह भी कहता है- माता-पिता और आचार्य से ही मनुष्य के पास प्रथम ज्ञान आता है। आचार्य के रूपं अलग-अलग होंते हैं, तथापि प्रथम माता से, उसके पश्चात् पिता से, और उस के पश्चात आचार्य से ज्ञान इसके पास आता है। आज हमारे पास इंटरनेट जैसे आधुनिक साधन भी आ गये हैं। इनसे भी उत्तम रीति से ज्ञान प्राप्त होने की संभावना रहती है। परंतु इन आधुनिक साधनों से ज्ञान प्राप्ति के लिए उत्तम प्रवृत्ती होना आवश्यक है। तथापि मनुष्य इसका अच्छा उपयोग करेगा तो उसका उत्तम कल्याण हो सकता है इसमें संदेह नहीं है। इस शुद्ध ज्ञान से सांसारिक दुःख को दूर किया जा सकता है। सभी वेद, उपवेद, पुराण और उपनिषद् का निचोड़ है कि सभी प्रकार के दुःख और कष्ट ज्ञान की प्राप्ति से ही दूर होते हैं। ज्ञान से ही जीवन के दुःखों का निवारण करने के लिये मार्ग दिखाई देता है।
तीन बार ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करना, तीनों से सिद्धि को प्राप्त करना और तीन कर्मों को करना इस सांकेतिक भाषा का अर्थ यह है कि – ब्रह्म का अर्थ वेद का ज्ञान प्राप्त करना है, इस ज्ञान को जानने वाले जो पूजनीय देवपुरूष हैं, उनसे और उनके अनुभवों से साधारण मनुष्य अत्यन्तं शान्ति को प्राप्त कर सकता है। तीन बार इस बुद्धि में स्थित ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करके और ये तीन कर्तव्य करने योग्य हैं यह जानकर जो विद्वान इस बुद्धि की अग्नियों को प्रज्वलित करता है, वह मृत्यु के पाश को तोडता है, शोक दूर करता है, और स्वर्गलोक में अत्यंत आनन्द से निवास करता है। हे नचिकेता! यह स्वर्ग सुख देनेवाली अग्निविद्या है, तूने इसको द्वितीय वर से मांग था, वह ज्ञान तुझे अब विदित हो गया है, अब तू अपना तीसरा वरदान मांग-
यम ने जो वरदान अब तक दिया नचिकेता को दिए हैं, वह आत्मा, बुद्धि, ज्ञान, मन आदि इन्द्रियाँ शरीर के अन्दर जो ज्ञान है, और जो आत्मा के साथ रहता है, वह यह है। आत्मा का ज्ञान तो अभी नचिकेता को मिलना शेष है। यहां तक केवल बुद्धि रूपी अग्नि का वर्णन हुआ है। क्योकि ज्ञान से ही स्वर्ग का सुख मिल सकता है। जितना ज्ञान मनुष्य के पास होगा उतना ही वह इस विश्व में सुखपूर्ण भोग सकेगा। जगत में ज्ञान से ही उसका संवर्धन हो सकता है। इस ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिये, और उसमें सात्विकता का प्रयोग करते हुए करनी चाहिये। सच्चे सुख का यही साधन है। सत्य ज्ञान का संवर्धन करना और उसको मानवी जीवन में उपयोग करना। इसी से ही स्वर्ग लोक इस भूमंडल पर प्रगट हो सकेगा, तथा मरणोत्तर शान्ति का नाम भी स्वर्ग ही है। यह दोनों-ज्ञानाग्नि से ही प्राप्त हो सकते हैं।

नचिकेता का तीसरा वरदान-
नचिकेता तीसरा वर मांगता है – मनुष्य की मृत्यु होने पर जो यह संदेह होता है कि, कई कहते हैं आत्मा है, और दूसरे कहते हैं कि आत्मा नहीं है। आप के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके मैं यह आत्मा का रहस्य जान पाऊं, यह वरों में तीसरा वर है। इस प्रकार नचिकेता ने पहिले वरदान से पिता का क्रोध कम किया, और उसको प्रसन्न किया। दूसरे वरदान से स्वर्ग प्राप्ति के लिए अग्नि का ज्ञान प्राप्त किया। और अब तीसरे वरदान से वह मरणोत्तर आत्मा का रहस्य जानना चाहता है। नचिकेता कहता है- मरने के पश्चात् आत्मा रहता है, ऐसा कई लोग मानते हैं, और दूसरे विचारक कहते हैं कि मरने के पश्चात् कुछ भी नहीं रहता। इसमें सत्य क्या है, वह भी मुझे बताओ, यह ज्ञान नचिकेता ने तीरारे वरदान के रूप में मांगा। शरीर के नाश से आत्मा विनष्ट होता है या नहीं ? अथवा शरीर नष्ट होने पर आत्मा रहता है या नहीं। यह नचिकेता का प्रश्न है।
— यम इस प्रश्न का उत्तर देना नहीं चाहते। वह नचिकेता को दूसरे दूसरे प्रलोभन में अटकाना चाहते हैं, पर नचिकेता किसी भी प्रलोभन में नहीं फंसता। यह हृदय स्पर्शी संवाद अब आगे कठोपनिषद में दृष्टांत के रूप में मिलता है-
यम कहते हैं- देवों ने भी इस विषय में संदेह किया था, इसको जानना आसान नहीं है। यह अति सूक्ष्म ज्ञान है। हे नचिकेता ! और कोई वरदान मांग ले। मेरे ऊपर दबाव न डाल। इस वरदान को छोड दे, यम ने कहा कि हे नचिकेता ! प्राचीन समय में अनेक ज्ञानियों ने इस विषय की खोज करने का प्रयत्न किया था। पर वे इस को जान नहीं सके। देव भी जिसको प्राप्त नहीं कर सके यह ईशोपनिषद का कथन है। केन उपनिपद में यही कहा गया है कि आत्मा को देव नहीं जान सके। यही यहां कहा जा रहा है। देवों ने इसे जानने का यत्न किया था। पर यह सरलता से जाना नहीं जा सकता। अर्थात जो देवों को उपलब्ध नहीं हो सका वह नचिकेता को कैसे प्राप्त होगा। इस लिये यम नचिकेता से कहते हैं कि कोई दूसरा वरदान मांग मेरे ऊपर व्यर्थ दबाव न डाल। दूसरा वर मांग और इसी का उत्तर देने के लिये मुझे विवश न कर।
यम का यह वचन सुनकर नचिकेता बडे धैर्य से कहता है- हे यम जिस कारण देवों ने भी इस विषय में सन्देह किया था, और आप भी कहते हैं कि इसका जानना सरल नहीं है। और इस विषय का उपदेश करने वाला आप से अलग कोई दूसरा मिलने वाला नहीं है, इसलिये इसके समान कोई दूसरा वरदान मैंने मांगना ही नहीं है।
आप कहते हैं कि यह आसानी से जानने योग्य नहीं है, इससे यह सिद्ध हुआ कि यही प्रश्न पूछने योग्य है। इसके अतिरिक्त तुम्हारे जैसा सुयोग्य आचार्य ही इसका उत्तर देने में समर्थ है, कोई दूसरा मिलने वाला भी नहीं है। इसलिये मैं तो यही वर मागूंगा, मुझे कोई दूसरा वर मांगना ही नहीं है, ऐसा नचिकेता ने कहा। तथापि यम फिर इस कुमार को अन्यान्य प्रलोभन में फंसाना चाहते हैं।
यम कहते हैं- नचिकेता तू सौ वर्ष की आयु वाले पुत्र और पौत्र मांग ले, बहुत से पशु, हाथी, सोना और घोडे वरदान में ले ले भूमि का विस्तृत भाग वर में ले ले, और तू जितने वर्ष जीवित रहना चाहता है वह मांग ले, यदि तू इसके समान दूसरा कोई वरदान चाहता है तो, उसको मांगले, धन और दीर्घायु मांग ले। हे नचिकेता! विस्तृत भूमि पर तु राज्य कर। मैं तुझे सारी कामनाओं का भोग करने वाला बनाता हूं। जो जो कामोपभोग इस लोक में दुर्लभ हैं, उन सब कामोपभोगों को अपनी इच्छानुसार मांग ले, रेसी सुंदर रमणियां रथों के साथ और बाजों के समेत जो साधारण मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकते वह मांग ले। हे नचिकेता! मेरी प्रेरणा से इनको प्राप्त करले, और इनसे अपनी सेवा करवा। परंतु मुत्यु के पश्चात् की अवस्था के विषय में नहीं पूछ, वह दुर्गम विषय है। इस तरह यम समझता रहा, पर नचिकेता इन प्रलोभनों में नहीं फंसा।
नचिकेता उत्तर देता है- हे यम! मानव की सब इन्द्रियों में जो तेज रहता है, उस तेज का भी एक दिन अभाव होना ही है, जीवन के ऐसे ये भोग तुच्छ हैं, और जीवन कितना भी लम्बा मिला तो वह भी अल्प है। सो आप अपने घोडे और अपने नृत्य और गीत अपने पास रखें, मनुष्य धन से तृप्त नहीं हो सकता। मनुष्य की इंदियों का तेज इन भोगों से नष्ट हो जाता है। तथा जितनी भी दीर्घ आयु मिली हो वह भी वह कम ही प्रतीत होती है। स्त्रियां बाजे, नाच और गायन वह सब तुमहारे पास ही रहें, वह मुझे नहीं चाहिये। धन से मनुष्य को तृप्ति नहीं होती। यदि में धन चाहूं तो जितना चाहिये आपके दर्शन के उपरात वह धन मुझे मिल ही जायगा। इसी तरह मृत्यु के आने तक हम जीवित रहेंगे। इस में मुझे कुछ भी प्रलोभन नहीं है। दीर्घ आयु में क्या सुख है ? यह हम जानते हैं। इसलिए भी जो वर मैंने मांगा है, उससे अलग और कोई वर में नहीं मांगता। वही वर मुझे चाहिये। नचिकेता के इस तरह साफ मना कर देने पर यम संतुष्ट हुए, और नचिकेता की प्रशंसा करके उसको वह ज्ञान देने के लिये तैयार हो गये। यहां कठोपनीषद के प्रथम अध्याय की प्रथम वल्ली समाप्त होती है।
अब आगे कठोपनीषद में यम और नचिकेता के आत्मज्ञान सम्बंधी संवाद रूपी दृष्टांत हैं, जिसकी चर्चा दूसरे भाग में करेंगे। ऊँ शांति शांति ऊँ।

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