कठोपनिषद -2

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली-
प्रथम भाग से आगे —

Dr.R.B.Dhawan (Guruji), Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience.

https://youtu.be/Dg1DCQ1xIoA

अब आगे यम नचिकेता को आत्मा का रहस्य बताना आरम्भ करते हैं –
यम कहते हैं – श्रेय अर्थात् कल्याण करनेवाली वस्तु भिन्न है और। प्रेय अर्थात प्रिय लगने वाली वस्तु उससे भी अलग है। अलग-अलग परिणाम वाली ये दोनों वस्तुयें मनुष्य को बांध देती हैं। उनमें से श्रेय वस्तु को ग्रहण करने वाले का भला होता है, और जो प्रेय को चाहता है वह अपने उद्देश्य से गिरता चला जाता है। अतः श्रेय और प्रेय ये दोनों मनुष्य के पास होते ते हैं तो, इनका विचार करके धीर पुरुष उनमें से किसी एक को अपनाता है। बुद्धिमान पुरुष श्रेय को प्रेय से अधिक पसंद करता है, पर मन्द बुद्धिवाला मनुष्य लालसा के कारण प्रेय को ही स्वीकार करता है। हे नचिकेता ! तूने अच्छी तरह विचार करके, प्रिय और प्यारे लगने वाले भोगों को छोड दिया है, तथा जिन में बहुत से मनुष्य डूबते हैं ऐसी वस्तुओं को भी स्वीकार नहीं किया है। यह तूने अच्छा किया है।
श्रेय और प्रेय (श्रेय देने वाले कार्य, और प्रिय लगने वाले कार्य) ऐसे दो पदार्थ इस जगत में हैं। श्रेय उसको कहते हैं कि जिससे मनुष्य का सच्चा कल्याण हो सकता है। और प्रेय उसको कहते हैं कि जिससे मनुष्य को तात्कालिक सुख मिल सकता है। पूर्वाेक्त प्रथम वल्ली में यम ने जो भोग देने का प्रलोभन नचिकेता को दिया था वे सब भोग प्रेय अर्थात् तात्कालिक सुख देनेवाले कहे जा सकते हैं। उनमें धर्म और नीतिका बंधन नहीं है। इस लिए यह केवल भोग ही भोग हैं। इन पर धर्म और नीतिका बंधन आ जायगा. तो ये ही भोग अंशतः श्रेय बन सकते हैं। जैसा स्त्री के साथ संबंध करके गृहस्थाश्रम करना, जब यह धर्म नियमों से रहित होता है, तब दोष बन जाता है, और यह प्रेय कहलाता है। पर यह जब धर्म नियमों से मर्यादित हो जाता है, तब यही श्रेय रूप होकर व्यक्ति, कुल, जाती, समाज, राष्ट्र आदि का उन्नति कारक हो जाता है। अतः इसी को श्रेय कह सकते हैं। इसी तरह अन्यान्य भोगों के विषय में जानना चाहिए।
हे नचिकेता यहां जो भोगों से निवृत्त हुआ था वह धर्म मर्यादा विहीन, नीतिधर्म रहित, अमर्यादित, आसुरी वृत्ती के भोगों से दूर रहना चाहता था, और यह उसका करना अत्यन्त योग्य था। वह शाश्वत आत्मा का ज्ञान इस लिये पूछता था कि उससे धर्म नियम सिद्ध होंगे और उनकी मर्यादा भोगों पर और मानवी व्यवहार पर पडकर ये ही भोग दैवी (कल्याणकारी) बन जांयेंगे और ये ही अनन्त सुख तथा शान्ति देनेवाले होंगे। इसलिये वह चाहता था कि शाश्वत तत्त्व का ज्ञान मुझे मिल जाय जगत के पदार्थ तो यहां हमारे पास हैं ही, पर इन सबपर जिसका नियंत्रण है, वह शाश्वत आत्म तत्त्व है, या यह सब सांसारिक माया है। यह नचिकेता के प्रश्न का आशय था। यह जानकर यम कहता है, कि श्रेय और श्रेय ऐसे दो पदार्थ मनुष्य के सन्मुख आते हैं। इनमे से श्रेय के ग्रहण करने वाले मनुष्य का कल्याण होता है, और केवल प्रेय का ग्रहण करने वाला अपने मानव जन्म के धेयय से गिरता है। अर्थात प्रेय के पीछे पड़ने वाले को मनुष्य जीवन का धेयय प्राप्त नहीं हो सकता।
धेय और प्रेय दोनो मनुष्य के पास आते हैं, उस समय मनुष्य दोनों का परीक्षण करता है। किससे क्या लाभ होगा इसका विचार मनुष्य करता है। यह विचार करके जो धीर-बुद्धिमान होता है वह श्रेय को स्वीकार करता है, और अपने जन्म को सफल बनाता है। परंतु जो मन्द बुद्धिवाला बुद्धिहीन होता है, वह श्रेय को त्याग कर प्रेय को स्वीकार करता है, और जीवन को विफल कर लेता है, इसलिये भोगों में फंस जाता है, और अन्त में महादुःख में गिर जाता है।
हे नचिकेता तुमने ये प्रिय दीखने वाले भोग छोड दिये, इस धनमयी माला को अर्थात् बन्धन करने वाली इस श्रृंखला को, इस जंजीर को त्याग दिया है। यह अच्छा किया है। इसी भोगमयी जंजीर से-इसी भोगरूप शृंखला से बहुत से लोग बांधे जाते हैं। इसमें सब मनुष्य डूब रहे हैं। यम कहता है- कि हे नचिकेता ! तुमने प्रेय को त्यागकर श्रेय को स्वीकार किया है, यह अच्छा किया है, इससे तुम्हारे जन्म का कल्याण होगा।
जो अविद्या और विद्या के नाम से प्रसिद्ध है, ये दोनों विपरीत तथा मिन्न परिणाम वाली हैं। नचिकेता को में विद्याभिलाषी मानता हूं, क्योंकि तुझे बहुत सी भोगकी इच्छा ने भी नहीं ललचाया। अविद्या मनुष्य में रहते हुए, स्वयं को बडे बुद्धिमान विद्वान समझने वाले मूर्ख ठोकरें खाते हुए भटकते रहते हैं। धन के मोह में प्रमाद करने वाले मूर्ख को परम श्रेष्ठ अवस्था का ज्ञान नहीं हो सकता। यही इस लोक में हैं, (प्रयोग करने योग्य है) वह मनुष्य बार-बार मेरे अर्थात सम के-वशमें आ जाता है। यम कहता है कि- अविद्या और विद्या ये दो प्रकार के ज्ञान हैं। अविद्या वह ज्ञान है जो जागत के सुख को देनेवाला भौतिक ज्ञान कहलाता है। इससे मनुष्य को जागत के सुख मिल सकते हैं । यहां के सब प्रकार के भोग सुख उस को मिल सकते हैं। आज कल की व्यावहारिक भाषा में इसको विज्ञान कह सकते हैं। इस विज्ञान से सब प्रकार के सुखोपभोग मिल सकते हैं। गाडियां, आभूषण, नाना प्रकार के यंत्र और जो भी जागत के सुख साधन हैं वे सब विज्ञान की प्रगति से निर्माण होते हैं, और मनुष्य को प्राप्त होते हैं। इसका अनुचित प्रयोग अविद्या है ।
वास्तविक विद्या वह है जिससे आत्मा का ज्ञान प्राप्त होता है। इस जगत के सर्व पदार्थ जो अग्नि जल विद्युत् सूर्य चन्द्र आदि हैं, उन पर जिनका प्रशासन चलता है उस आत्म तत्त्व का ज्ञान विद्या शब्द से अभिषेत है। ये विद्या और अविद्या, अर्थात् आत्मज्ञान और प्राकृतिक ज्ञान-विज्ञान मनुष्य के पास होते हैं। इनका परिणाम अलग-अलग होता है। मनुष्य को परीक्षा करके ही इनका ग्रहण करना चाहिये। नचिकेता ने विद्या को अर्थात् आत्मज्ञान को पसंद किया है, क्योंकि मैंने उनके सामने इतने भोग रखे, पर उसका मन उनमें नहीं फंसा, और वह आत्मज्ञान को ही प्राप्त करने की इच्छा प्रकट करता रहा, यह बहुत ही अच्छा है। निःसन्देह नचिकेता में विद्या के प्रति अभिरुची है, और भोग में फंसने की प्रवृत्ति इसमें नहीं है, अतः इस शिष्य की उन्नति निःसंदेह होगी, क्योंकि यह शिष्य ज्ञान प्राप्ति के लिये अन्य सब भोगों को त्यागने को तैयार है। घन के लोभ से मूढ बने हुए अज्ञानी को सच्चे कल्याण का मार्ग नहीं दीखता। ये भोगी यही मानते हैं कि यही सब कुछ है, परलोक कुछ भी नहीं है। मरने तक ही जो भोग भोगने योग्य हैं, उनका भोग करो, मरने के पश्चात् कुछ भी रहता नहीं है। अतः यहीं जितने भोग मिलेंगे उतने प्राप्त करलो, और उनका भोग करते जाओ। ऐसे भोगी वारंवार मृत्यु के वश में आते हैं, और अनेक दुःख भोगते रहते हैं।
सूक्ष्म-ज्ञान- जो श्रवण करने के लिये भी बहुतों को प्राप्त नहीं होता सुनने पर भी बहुत लोग जिसे नहीं अपनाते इसको प्राप्त करनेवाला और इसका कुशलता से प्रवचन करने वाला कहीं कोई आश्रर्यरूप विरला ही होता है। कुशल गुरु से जिसे ज्ञान मिला है। ऐसा ज्ञात रूप वाला विरला ही है। बारबाार विचार करने पर भी भविष्य में अर्थात् सांसारिक भोग साधनों में फंसने वाले अपने आपको वैज्ञानिक मानकर अभिमान करनेवाले होते हैं, वे समझते हैं कि, हम बडे बडे ज्ञान विज्ञान के आविष्कार करते हैं, पर वे आत्मिक ज्ञान की दृष्टि से अत्यंत मूढ ही होते है, अतः अन्धे के पांछे जानेवाले अन्धों के समान वे ठोकरें खाते हुए सदा दुःखों में भटकते ही रहते हैं। उनको शाश्वत आनन्द का स्थान नहीं प्राप्त होता।
यह आत्मा अज्ञानी मनुष्य के उपदेश से जानने योग्य नहीं है। गुरु के उपदेश के विना इस विषय में प्रगति नहीं हो सकती। क्योंकि यह सूक्ष्म से सूक्ष्म होने से अत्यंत कठिन है। हे प्रिय ! शिष्य वह ज्ञान स्वयं ही किये तर्क से नहीं मिलता, गुरु के द्वारा बतलाये जाने पर ही यह ज्ञान प्राप्त होता है। जिसे तूने प्राप्त किया है। निःसंदेड तू सदा धैर्यवान् है। हे नचिकेता तेरे जैसा पूछने वाळा शिष्य हमें बारंवार मिलता रहे जो आत्मा का ज्ञान है वह सुनने के लिये भी बहुतों को नही मिलता, क्योंकि वे प्रतिदिन धन की वृद्धि, भोग साधनों को इकठ्ठा करना आदि में लगे रहते हैं। आत्मविद्या के प्रवचन होते रहें तो भी वे उनको हानिकारक समझते हैं, और वहां आते तक नहीं सुनते और सुनते भी हैं तो ग्रहण नहीं करते। अब देखिये कि जो आत्मज्ञान का प्रवचन सुनते हैं, उनमें से भी बहुतों के ध्यान में वह ठीक तरह नहीं बैठता, इसलिये सुन कर भी उनके लिये वह न सुनने के समान होता है ।
इस आत्मज्ञान का उत्तम सुबोध हो ऐसा प्रवचन करने वाला होई विरला ही कहीं होता है, तो इसको उत्तम रीति से ग्रहण करने वाला अर्थात मनन पूर्वक इस आत्मज्ञान को आत्मसात करनेवाला कोई-कोई ही होता है। इसी तरह कुशल गुरु से उपदेश प्राप्त करके इस को ठीक तरह जानने वाला आत्मज्ञानी तो बहुत ही विरले होते हैं। कनिष्ट अर्थात् अज्ञानी मनुष्य के द्वारा उपदेश होने पर इस आत्मा का ज्ञान शिष्य को प्राप्त होगा ऐसा नहीं है। केवल मनन करने से ही इसका ज्ञान नहीं होगा। अनन्य भाव वाले सद्गुरू के द्वारा उपदिष्ट होने पर फिर इस ज्ञान में ठहराव आ जाता है। वही अन्तिम प्रगति है। उपदेश बिना ज्ञान किसीको मिल भी नहीं सकता। क्योंकि यह आत्मज्ञान केवल तर्क से नहीं प्राप्त हो सकता। गुरु के द्वारा बताया जाने पर ही उत्तम रीति से हो सकता है। हे नविक्रेता – तू सचमुच निःसंदेह सच्चे धैर्यवाला है, क्योंकि सुख के इतने प्रलोभन तुमने त्याग दिये और इस ज्ञान की प्राप्ति के लिये तत्पर होकर यहां रहा है। इसलिये मैं कहता हूं तेरे जैसा प्रश्न पूछने वाला शिष्य ही हमें बार-बार मिले। क्योकि तू. उत्तम शिष्य है। हे नचिकेता ! तुम धन्य हो ।
निःसदेह धन का कोष स्थायी रहने वाला नहीं है, यह मैं जानता हूं। तथा अनित्यों से इस नित्य ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती, यह भी मुझे विदित है। इसलिये मैंने नाचिकेत अग्नि को प्रदीप्त किया और उसमें अनित्य द्रव्यों के समर्पण करने से नित्य ब्रह्म को मैंने प्राप्त किया है। हे नचिकेता तू सचमुत्र बुद्धिमान् है, क्योंकि तुमने कामनाओं की प्राप्ति जगतका आधार, यज्ञका अंततत्व, निर्भयता की पराकाष्ठा स्तुति से ज्ञात होने वाला बढा ब्रह्म, और विशेष प्रशंसनीय परम स्थान को देखकर धैयं से सम भोग-इच्छाओं को तुमने छोड़ दिया है। वह गुप्त स्थान में रहने वाला, बुद्धि में रहनेवाला, गूढ दुर्गम प्रदेश में रहनेवाला. पुराण पुरुष है। अध्यात्म योग के मार्ग से उस देव को जानकर धीर बुद्धिमान मनुष्य इर्षां और शोक को छोड़ देता है।
अब आगे यम कहता है कि- धनकोश अथवा सभी भोग के साधन अनित्य हैं, अर्थात् शाश्वत टिकनेवाले नहीं हैं। और जब तक मनुष्य इन अनित्य भोग साधनों में आसक रहेगा, तब तक इसको शाश्वत सुख कदापि प्राप्त नहीं होगा, ये दोनों सिद्धान्त अटल हैं। इसलिये भोग साधना पर आसक्ति छोडनी चाहिये, और उनको विश्व सेवा के यज्ञ में समर्पित करना चाहिये। इस समर्पण से ही मनुष्य हो शाश्वत सुख प्राप्त होना संभव है। यही यज्ञ है। यज्ञ से कल्याण और अयज्ञ से दुःख होता है। इसलिये आगे यम कहता है कि मैने नचिकेत अग्नि जो बुद्धि में रहता है, उसको प्रदीप्त किया और उसमे सब अनित्य भोग साधनों का समर्पण किया, और इन अनित्य भोग साधनों के समर्पण से नित्य शाश्वत कल्याण प्राप्त किया है। जब तक भोग साधनों में मैं आसक्त होकर रहता था, तब तक वे भोग साधन मेरे लिये बंधन कर रहे थे, परंतु जिस समय मैंने आसक्ति छोड़ दी, भोग साधनों का समर्पण कर लिया, और यज्ञ करना आरंभ किया, तब उन्ही अनित्य साधनों के समर्पण से वे ही कल्याण प्राप्ति के साधन हुए। अनित्य वस्तुओं के यज्ञ से नित्य ब्रह्म की प्राप्ति होती है। किसी भी भोग साधन को लीजिये। जब तक वह भोग साधन आसक्ति से बर्ता जायगा, तब तक वह बंधन कारक होगा। परंतु जब वह धर्मानुकूल बर्ता जायेगा तब वहीं पुण्य कर्म बनेगा। अन्न वस्त्रादि भोग साधन स्वार्थ भोग के लिये बर्ते जाने पर वे ही दुःख बढाने वाले होंगे और जिस समय वे ही साधन यज्ञ के लिये समर्पित होंगे, उसी समय से वे शावत कल्याण देने लगेंगे। इसलिये धर्मानुकूल यज्ञ मार्ग का अवलंबन करना प्रत्येक को आवश्यक है।
इछाओं की संपूर्णतः पूर्ति कहां होती है? जगत का मूल आधार कौन सा है? कर्मों का अनंतत्व किस तरह है? और उन कर्माे की उपयोगिता कैसी है? निर्भयता की पराकाष्ठा कहां होती है? स्तुति से ज्ञात होने वाला अथवा जिसकी बड़ी प्रशंसा की जाती है, वह बडा ब्रह्म क्या है? इसका महत्त्व क्या है? विशेष प्रशंसा करने योग्य मूल आधार का स्थान कौन सा है? यह सच जानकर धैर्य से सब भोगों का तुमने त्याग किया है, इसलिये हे नचिकेता ! तू सचमुच बुद्धिमान है। इसमें संदेह नहीं है। आप्तकाम किस तरह हो सकता है, अर्थात सभी इच्छाओं की पूर्ति कैसे हो सकती है? विश्वका आधार जो परमात्मा है वही आप्तकाम है। कर्म अनन्त हैं, उस परमात्मा का विश्वरूप है, उसकी सेवा के लिये अनेकानेक कर्म करने चाहियें, ये तो करने ही चाहिये, जहां तहां देखो इस विश्वरूप की सेवा करने के लिये अनेक कर्म यथायोग्य रीति से करने की अत्यंत आवश्यकता है। ये कर्म करने से ही निर्भयता की पराकाष्ठा साधक को प्राप्त हो सकती है। मनुष्य निर्भय होकर यहां अपना कर्तव्य करे। विशेष प्रशंसा करने योग्य जो सबसे बडा और सबसे श्रेष्ठ ब्रह्म है, वहीं महत्वपूर्ण अर्थात् सबसे महान है। इसकी प्राप्ति अर्थात् इसकी ब्राह्मी अवस्था साधक को प्राप्त करनी चाहिये, यही सब का आधार, आश्रय अथवा विश्राम का परम स्थान है। यह जो जानता है वह क्षणिक भोगों में नहीं फंसता। अपना सर्वस्व इस विश्वरूप परमात्मा की सेवा के लिये अर्पण करता है, और ऐसा जो करता है वही सच्चा बुद्धिमान कहलाता है !
सच्चे बुद्धिमान का लक्षण यम धर्मराज पुनः अधिक स्पष्ट करते हैं-
वह ब्रह्म देखने के लिये कठित है, सहज ही से यह देखा नहीं जा सकता, परंतु सभी स्थान में सूक्षम रीति से व्याप्त है, इस जगत का निर्माण करके उसी में अनुभविष्ट होकर जो रहा है, बुद्धि मे ही रहनेवाली अर्थात वृद्धि के द्वारा ही जो अनुभव में आता है, इन्द्रियों से जो संपूर्णतः ज्ञात नहीं होता, अन्तः करण में रहने वाला, गुप्त से भी गुप्त स्थान में रहनेवाला जो पुराण पुरुष है, उस परमात्म देव को अध्यात्म योग से जानकर, वह सर्वत्र कैसा है, यह जानकर बुद्धिमान साधक हर्ष और शोक का त्याग करता है, क्योंकि वह इस विश्व में सर्वत्र एक जैसा सर्वत्र उपस्थित है। इसलिये इष्ट प्राप्ति का हर्ष और अनिष्ट प्राप्ति का शोक करना अनुचित है, क्योंकि दोनों में बह एक जैसा ही है। भगवद्गीता में सुख-दुःख सम करने का उपदेश भी यही भाव बताता है। अध्यात्म योग वह है जो सर्वांधार परमात्मा है, इसका अनुभव करना। सतत-युक्त होने का आदेश भगवतांक ने दिया है, वही यहां अनुसंधान करके देखना चाहीए है।
हर्ष होने से भी मनुष्य कर्तव्य भ्रष्ट होता है, ओर शोक होने से भी कर्तव्य नहीं कर पाता। ये दोनों मनुष्य को कर्तव्य भ्रष्ट करने वाले हैं, अतः इनका त्याग करके मनुष्य सदा कर्तव्य तत्पर रहे, अपना कर्तव्य करे, कभी कर्तव्य भ्रष्ट न होकर सदा अपना कर्तव्य करता रहे। जो मनुष्य इसे जानकर इसका धारण और मनन करके इस सूक्ष्मज्ञान को प्राप्त करता है यह आनंद के केन्द्र को पाकर आनन्दित होता है। नचिकेता को मैं इस विद्या का खुला हुआ घर जैसा समझता हूं ।
नचिकेता कहता है- धर्मसे मिन्न, अधर्म से भी भिन्न, इस कर्म और अकर्म से भी भिन्न, भूत और भविष्य से भी मिन्न जो कुछ तू देखता है, वह मुझे बतलायें।
यम कहता है- सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं. सारे तप जिसको बतलाते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते है. उस पद का वर्णन मैं तुझे संक्षेप से कहता हूं वह ओंम् है। आत्मा का जो यह सूक्ष्म स्वरूप है, उसका श्रवण, मनन और नितिय ध्यान करके, इसका ज्ञान उत्तम रीति से प्राप्त करके जो कुछ प्राप्त होता है, जो उसको प्राप्त करता है, वह अपने ही अन्दर अपने ही आनन्द से सदा आनन्द प्रसन्न रहता है। यम कहता है कि यह नचिकेता ऐसा ही है। निःसंदेह यह नचिकेता का अन्तःकरण रूपी घर शुद्ध ज्ञान के लिये सदा खुला है। शुद्ध ज्ञान अन्दर जाने के लिये कोई प्रतिबंध नहीं है। नचिकेता ज्ञान ग्रहण करने के लिये सदा तत्पर है। भोगों में न फंसकर ज्ञान के लिये यह तत्पर है। ऐसा यह कुमार नचिकेता धन्य है।
नचिकेता कहते हैंे, हे यम ! – धर्म और अधर्म, कृत और अक्कृत भूत और भविष्य, इन सबके, जो परे है, जो इनके भी परे तुझे दीखता हो, वह मुझे समझा दे, वह मैं जानना चाहता हूँ। जो धर्माधर्म से परे, कृता-कृत से परे, भूत-भविष्य से भी जो परे है, वह मुझे बता दें। जगत् में लोग जो धर्म करते हैं, वह शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए करते हैं। ओर जो अधर्म करते हैं वे भी उससे सुख प्राप्त प्राप्त होगा ऐसा विचार करके ही अधर्म में प्रवृत्त होते हैं, जगत में कर्मों को करने वाले और कर्मों का त्याग करनेवाले ये दोनों सुख की अभिलाषा समान रूप से ही करते हैं, वर्तमान-भूत और, भविष्य में यह मनुष्यों की एक प्रेरक शक्ति रही है, वह है-सुख प्राप्ति की इच्छा वह सबको प्रेरणा करती है। अतः यह कहें कि इससे परे अर्थात् सच्चा आनन्द अखण्ड सुख, अथवा परम सुख देनेवाला जो इनसे भी परे है वह कौन है ? उसे मुझे बता दें।
नचिकेता का यह प्रश्न सुनकर यम ने कहा – सब वेद इसका वर्णन करते हैं, सब प्रकार के तप इसी की प्राप्ति के लिये तपे जाते हैं, ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन इस की प्राप्ति के लिये ही किया जाता है ! वह संक्षेप से ओंम् पद है। वेदों नें भी ओंकार का ही वर्णन किया है, सब तप करके जो प्राप्त होता है, वह भी ओंकार ही है, व्रतादि जो किये जाते हैं, वे भी इसके लिये किये जाते है। ओम् में सब उत्तर आ गया है। माण्डूक्य उपनिषद में ओंम् यह अक्षर है, और यही यह सब कुछ है, ऐसा कहा है, ओंकार का स्वरूप माण्डूक्य उपनिषद् में बताया ह,ै वह यहां देखने योग्य है। इस उपनिषद् में भी आगे इसी का विस्तृत वर्णन आयेगा। यदी अक्षर ब्रह्म है, यही अक्षर श्रेष्ठ है। इस अक्षर को जान करके जो जिसकी इच्छा करता है, वह उसका होता है। यह श्रेष्ठ आलंबन है, यही उच्च आलंबन है, इस आलंबन को जानकर ज्ञानी ब्रह्मलोक में महत्व को प्राप्त होता है। यह ज्ञानी आत्मा न जन्मता है, और न मरता है। यह किसी से उत्पन्न नहीं हुआ, और इससे कोई उत्पन्न नहीं हुआ। अजन्मा, नित्य, शाश्वत और यही वेद पुराण है। मनुष्य शरीर के मरने पर भी यह नहीं मरता यह ओम् अक्षर ब्रह्म है, अर्थात् अविनाशी ब्रह्म का वर्णन इससे अच्छा नही हो सकता है। यही ओम् परंब्रह्म अर्थात् श्रेष्ठ अविनाशी ब्रह्म है। इस ओंकार से व्यक्त होने वाले अक्षर अविनाशी ब्रह्म को जानने से जो जिसकी इच्छा करता है, उसको वह मिलता है। अर्थात् पूर्ण रीति से वह आप्तकाम चा तृप्त होता है। उसकी सभी कामनाएं शान्त हो जाती हैं, और कोई कामना शेष रहती नहीं है।
यह ओंकार श्रेष्ठ आलंबन है, और यही ओंकार परम उत्तम आधार है, इस ओंकार रूप आधार को जानकर ब्रह्मलोक में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है। साधक के लिये ध्यान के लिये अवलम्बन लगता है, वह ओंम् अच्छा श्रेष्ठ आलंबन है। ओकार का उच्चारण बिना किसी अभ्यास से होता है, किसी अवयव को कष्ट नहीं होता, दीर्घ काल तक यह जपा जा सकता है। किसी अन्य शब्द पर ध्यान रखने की अपेक्षा इस ओंम् पर ध्यान जल्दी स्थिर हो जाता है। इस शब्द में मधुरता भी है। चित्त इसमें रहता है, शान्ति का अनुभव होता है। इसलिये योग साधना में ध्यान धारणा में इसका अधिक महत्त्व है। अन्य सब आलंवनों से इसका आलंबन उत्तम है। जो साधना के पश्चात् स्वयं अन्दर से अनाहत शब्द सुनाई देता है, उसका शब्द और ओंकार का शब्द इनमें समता बहुत है। अतः ओंकार का जो महत्व है, वह ऐसे कारणों से माना गया है। कठोपनिषद प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली का यह अठारहवां श्लोक था।
गीतामें – में भी कहा गया है यह आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है। यह कहां नहीं है। यह अजन्मा, नित्य, शाशवत और वेद-पुराण पुरुष है। शरीर का नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता। यह आत्मा ओंकार से बताया जाता है, यह इसकी विशेषता है। हनन करने वाला समझता है कि मैं इसे माररहा हूं, और मारने वाला समझता है कि मैं मरा। दोनों ये नहीं जानते कि यह न तो मारता है और न यह मारा जाता है। इस प्राणी की बुद्धि रूपी गुफा में रहा हुआ आत्मा सूक्ष्म से सूक्ष्म और बढे से बड़ा है इंद्रियों की प्रसन्नता से निष्काम और शोक रहित बना पुरुप उस आत्मा की महिमा को देखता है। प्राणी के अन्तःकरण में, हृदय में, बुद्धि में महान् आत्मा निवास करता है। यह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान सेे महान् है। यह सब में व्यापता है। इसलिये सूक्ष्म से सूक्ष्म है, सूक्ष्म ही व्याप सकता है। आर यह सबको घेरता है इसलिये यह सबसे महान बडे से भी बड़ा है। अर्थात् यह सबका एक ही आत्मा है, जो सबके अन्दर है, और बाहर भी है। निष्काम तथा जो शोक रहित होता है, वही इसको देखता है, और इंद्रियों की प्रसन्नता से वह अपनी आत्मा की महिमा को जानता है। निष्काम भाव से सेवा करने वाला और सदा चिंता न करने वाला इस आत्मा को जान सकता है। भोगो में जो लिपटा होता है, और जो सदा चिंता में मग्न रहता है, वह इस आत्मा को जान नहीं सकता। इंद्रियां मन आदि तथा शरीर के जो अंग हैं उनकी प्रसन्नता तब रहती है, जब इनमें आत्मा होता है, शरीर के आधार भूत धातुओं में समस्थिति रहती है, उस आत्मा की शाशवत सत्ता का अनुभव होता है। यदि शरीर रोगी रहा और इसमें विकलता आ गयी, तो इस आत्मा की शक्ति प्रकट नहीं होती।इस लिए आत्म साक्षात्कार के लिये शरीर की नीरोगिता और प्रसन्नता की आवश्यकता है। जब शरीर की ऐसी स्वस्थ अवस्था रहती है, तभी यह मनुष्य शोक रहित रहता है। और निष्काम भी होता है। विषयासक्ति रोग है. धर्मानुकूल संयम पूर्वक विषय सेवन यह प्रसन्नता का कारण बनता है । यह आत्मा और शरीर एक स्थान पर स्थिर रहने पर भी बडा दूर तक जाता है, अर्थात् यह सर्व व्यापक होने से बडे दूर तक का कार्य कर सकता है। सोता हुआ भो सर्वत्र जाता है, ऐसा यह आत्मा है। शरीर की मर्यादा इस आत्मा को मर्यादित कर नहीं सकती। यह दिव्य आत्मा आनन्द मय और निरानन्द ऐसा दोनों अवस्थाओं में होता है। इसके ही कारण जन्म तथा मृत्यु होते हैं, इसी तरह परस्पर विरुद्ध अवस्थाएं भी इसी के कारण होती हैं। यद्यपि सूर्य से प्रकाश और छाया होती है, पर सूर्य उससे अलिप्त ही रहता है, इसी तरह आनन्द और आनन्द रहित ये दोनों अवस्थाएं भी इस आत्मा के कारण होती हैं, तथापि यह उनके साथ कोई संबंध रखने वाला नहीं क्योंकि यह द्वन्द्वातीत है ।
अनेकों में एक आत्मा – वह शरीर रहित है, परंतु सब शरीरों में व्याप्त है. अस्थिरों में भी स्थिर रूप से रहता है, उस महान व्यापक आत्मा को जानकर धीर पुरुष शोक नहीं करता। यह आत्मा व्याख्यान से साक्षात् नहीं हो सकता, न मेघा (बुद्धि) से और ना हीं बहुत व्याख्यान सुनने से साक्षात हो सकता है। यह आत्मा उसके शरीर को अपने शरीर के समान स्वीकारता है, जो दुष्कर्म से पीछे हटा नहीं है, शान्त है, जो समाधि नहीं लगा सकता, जो शान्त मन वाला है, वह केवल प्रज्ञा से ही इसे प्राप्त नहीं कर सकता, अनेक शरीरों में शरीर रहित एक आत्मा रहता है, तथा स्थायी न रहनेवाले अनेक शरीरों में एक स्थायी आत्मा रहता है। यह आत्मा महान है, विभु हं, यह सब शरीरों में एक। इसको बुद्धिमान मनुष्य ही जानता है, और वह शोक से दूर होता है। यहां जिस आत्मा का वर्णन है वह अनेक शरीरों में रहने वाला परमात्मा है। नश्वर शरीरों में शाश्वत रहनेवाला है, मर्यादित शरीरों में अमर्याद है। शान्त शरीरों में यह विभु है। बुद्धिमान मनुष्य इसको जानता है, और शोक को दूर रखता है। इस आत्म ज्ञानी को किसी तरह का शोक नहीं होता।
केवल प्रवचन सुनने से इस आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता, केवल मेधा बुद्धि को बढाने से इसका अनुभव नहीं होता, केवल बहुत प्रवचन सुनने से अर्थात् बहुश्रुत होने से भी आत्मज्ञान नहीं होता। जिसको यह वरता है (जिसपर यह प्रसन्न होता है) उसको यह प्राप्त होता है। यह आत्मा उसके शरीर को अपना शरीर करके स्वीकार करता है, अर्थात् उस शरीर में यह अपनी शक्ति से प्रकट होता है। वेद, प्रवचन, अध्ययन आदि साधन का जो यहां निषेध किया है, वह सापेक्ष है। ये सब साधन निःसंदेह है, पर अन्त तक ये उपयोगी नहीं होते। देखिये वेद के मंत्रों ने जो उपदेश दिया है, उसका ज्ञान शाब्दिक ही है, प्रवचन से होने वाला ज्ञान भी शाब्दिक ही है। बहुश्रुत होना भी शाब्दिक ही है। शब्द का ज्ञान कुछ मर्यादा तक ले जाता है। शब्दज्ञान की मर्यादा छोटी होती है, उससे परे अनुभव जन्य ज्ञान का क्षेत्र है। यह बताने के लिये यहां कहा है कि, यह आत्माज्ञान प्रवचन से नहीं मिलता ।
जिस एकनिष्ट भक्तपर यह जब परमात्मा कृपा करता है, उसका शरीर को माध्यम यह बनाता है, और उसमें यह गुरू रूप से प्रकट होता है। इसलिये साधक को उचित है कि वह इसकी भक्ति करे, सेवा करे, इसके वेदादि में वर्णन जाने और सत्संग से ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करे। वेद उपनिषद् आदि ग्रंथों में जो उसका वर्णन है, वहां से ज्ञात करने का यत्न करे। यह आत्मा प्रेम का सागर है, इसलिये अनन्य भक्त को वह निःसंदेह अपनाता है, और जिसको वह अपनाता है, उसका शरीर उसी आत्मा का शरीर बनता है। साधक अनन्य भक्ति करे, और वह उसकी भक्ति व्यर्थ चली जाये ऐसा कभी नहीं हो सकता। वह उस अनन्य भक्त के शरीर में स्वभाव से ही प्रकट होता है। उसको अनुभव होता है कि विश्वात्मा मेरे अन्दर प्रकट हुआ है। वह विश्वात्म भाव से बोलता और अन्यान्य कार्य करता है।
जो दुराचार से पीछे नहीं हटता, अर्थात् दुराचार करता जाता हो, संयम नहीं रखता, भोगों में फंसता जाता है, जो अशान्त है, जिसके मन में शान्ति नहीं है, जिसके पास समाधान नहीं है, जिसका मन अशान्त रहता है, चंचल रहता है, यह केवल अपने प्रचण्ड वुद्धि से ही इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकेगा, पर जो दुराचार नहीं करता, जो भोगों से निवृत्त होता है, जो संयमी जिसका मन शान्त और चित्त प्रसन्न रहता है, जो समाधान वृत्ति का है, वह अपनी बुद्धि से इसको जान सकता है। अर्थात् यह अनुष्ठान है जिससे साधक आत्मज्ञान प्राप्ति के योग्य होता है, और उस में आत्माका प्रकाश हो जाता है। (६०)

प्रथम अध्याय, द्वितीय वल्ली समाप्त।

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प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली-प्रथम भाग से आगे — Dr.R.B.Dhawan (Guruji), Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience. https://youtu.be/Dg1DCQ1xIoA अब आगे यम नचिकेता को आत्मा का रहस्य बताना आरम्भ करते हैं – यम कहते हैं – श्रेय अर्थात् कल्याण करनेवाली वस्तु भिन्न है और। प्रेय अर्थात प्रिय लगने वाली वस्तु उससे भी…