कठोपनिषद् -3

Dr.R.B.Dhawan (Guruji), Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience.

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प्रथम अध्याय, तृतीय वल्ली-

( १ ) जो पंचाग्नि साधन करनेवाले, पंच प्राणरूप पंच अग्नियों की प्राणायाम द्वारा साधना करने वाले कर्मयोगी हैं, तथा जो नाचिकेत अग्नि (जो बुद्धि में रहता है) को माता-पिता और आचार्य द्वारा प्रदीप्त करने वाले ज्ञानयोगी हैं, तथा जो ब्रह्मज्ञानी हैं, जिन्होंने ब्राह्मी स्थिति प्राप्त की है, ये कहते हैं कि- जो (परमे परार्धे) परम उच्च स्थान में विराजमान होने वाले तथा (गुहां प्रविष्टौ) बुद्धि में प्रविष्ट होकर रहने वाले अपने अपने सुकृत (किये गये उत्तम कर्म) सेे संसार में रहकर अमृत रस का पान करने वाले जीवात्मा और परमात्मा हैं, वे छाया और प्रकाश के समान हैं। कर्मयोगी ज्ञानयोगी और ब्रह्म साक्षात्कारी, ये सब जीवात्मा और परमात्मा को क्रमशः छाया और प्रकाश कहते हैं। छाया भी प्रकाश से बनती है, सूर्य का प्रकाश न रहे तो छाया भी नहीं रहेगी। छाया का अर्थ अन्धकार नहीं। अन्धकार तो प्रकाश का पूर्ण अभाव है। छाया में प्रकाश रहता है, पर अपूर्णता वहाँ रहती है। छाया प्रकाश के कारण उत्पन्न होती है। यहां छाया का अर्थ जीवात्मा है। परमात्मा स्वयं प्रकाशमान है। वह स्वयं प्रकाशित है, जीवात्मा उस प्रकाश के कारण बनी छाया है।
भगवद्गीता में- (मम एव अंशः जीवलोके जीव भूतः। गीता. १५ ) जीव को परमात्मा अंश कहा गया है, और यहां छाया रूप कहा है। प्रकाश स्वरूप परमात्मा से बनने का मात्र यहां है, किसी जगह जीवात्मा को अग्नि की चिनगारियाँ कहा गया है, सबका तात्पर्य यह है कि जीव अल्प है। परमात्मा महान है, पर दोनों समान गुण-धर्म वाले हैं, अर्थात् जीव भी ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर सकता है, जो ब्रह्म के गुण धारण करने से हो सकती है। छाया भी कभी न कभी प्रकाश रूप होगी ही, आज भी उस प्रकाश से ही वह वनी है। छाया अन्धकार तो नहीं है, जो प्रकाश का अभाव हो। छाया तो अल्प प्रकाशवाली है, और प्रकाश पूर्ण प्रकाशवाला है, अर्थात् आत्मा और परमात्मा का यह भेद अल्प प्रकाश और पूर्ण प्रकाश का भेद है। ये जीव और परमात्मा के स्वरूप हैं। यहां इनको पुण्य लोक में रहकर अमृत रस का पान करनेवाला कहा गया है। जीवात्मा ब्राह्मी स्थिति में अमृत पान करता है, पूर्ण आनन्द का भोग प्राप्त करता है। यही उसका सुकृत या स्वकृत के स्थान में निवास है। ये दोनों परम उच्च स्थान में रहते हैं, और मनुष्यों की (गुहां प्रविष्टौ) बुद्धि में प्रविष्ट होकर रहते हैं ।

रथ और रथी- (६३)
दो सुँदर पक्षी परस्पर मित्र हैं, और वे एक वृक्ष पर बैठे हैं, उनमें एक उस वृक्ष का मीठा फल खाता है, और दूसरा देखता रहता है। यहां दोनों फल खाते हैं ऐसा नहीं कहा या। परमात्मा फल भोक्ता नहीं है। ऐसा होते हुए भी इस उपनिषद् वचन में दोनों को रसपान करने वाला कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि परमात्मा स्वयं आनन्द स्वरूप है, और जीवात्मा ब्राह्मी अवस्था में आनन्द स्वरूप होता है। अर्थात् ब्राह्मी अवस्था में दोनों आनन्द का अनुभव लेते हैं। परमात्मा का आनन्द सहज प्राप्त है, और जीवात्मा का प्रयत्न से साध्य है। इस तरह ये दोनों आनन्द का अनुभव लेते हुए बुद्धि में रहते हैं। कर्म योगियों को पार ले जानेवाला सेतु तथा जो तैरकर पार जाना चाहते हैं, उनके लिये निर्भय उसपार है, उस नाचिकेत अग्नि को जो कि बुद्धि में है, हम जानने में समर्थ हों और उससे परम अक्षर ब्रह्म को भी जानने में हम समर्थ हों। हमें अक्षर ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना है, उसके लिये साधन बुद्धि में रहने वाला ज्ञानरूप अग्नि ही है। जो अग्नि माता-पिता-आचार्य द्वारा प्रदीप्त किया जाता है। जिससे कर्म मार्ग और ज्ञान मार्ग का आचरण होता है, और अन्त में दुःखों के पार जाकर वहां अक्षर ब्रह्म का अनुभव किया जाता है। यह सब हम कर सकें। हमारे इस कार्य में किसी तरह विघ्न न हो ।

रथ और रथी-
जीवात्मा (आत्मानं रथिनं विद्धि) रथ में बैठने वाला रथ का स्वामी वीर है, (शरीरं रथं) शरीर उस वीर का रथ है,, ऐसा समझें। बुद्धिं (सारथिं विद्धि) बुद्धि सारथी है, जो इस शरीर रूपी रथ को चलाती है, ( मनः पग्रह ) मन को लगाम समझो। इस तरह रथ में बैठने वाले को अपना मार्ग तय करना है, और शरीर, बुद्धि और मन उसके ये साधन हैं। यह पहले समझ लो, जिससे पता लग जायगा कि अपने को प्रथम क्या करना चाहिये। आत्मा जब मन से युक्त होकर नेत्र से संबंध करता है, तब वह रूप का भोग करता है, इसी तरह कान से संबंध करके शब्द का भोग करता है। इसी तरह अन्य इंद्रियों से संबंध करके अन्य विषयों का भोग करता है। इस तरह आत्मा मन तथा इंद्रियों से युक्त होता है, तब वह ‘भोक्ता’ होता है। विना मन- इंद्रियों से सबंध के आत्मा को भोक्ता नहीं कह सकते, क्योंकि विना इस संबंध के वह स्वयं किसी का भोग कर हीं नहीं सकता।

अशिक्षित घोडों का रथ ५)-
जो विज्ञान से रहित है, जिस का मन स्वाधीन नहीं है, उसकी इंद्रियां उसके वश में नहीं रहती, अतः उसकी अवस्था अशिक्षित उच्छृंखल घोडों के रथ के समान होती है। जिस रथ को ऐसे अशिक्षित उच्छृंखल उन्मत्त तथा स्वाधीन रहने वाले घोडे चलाते हों, उस रथ का क्या होगा यह सब जानते ही हैं। वह किसी गढे में गिर जायगा, तथा उस रथ में बैठने वाला रथी भी उसके साथ गढे में गिर जाएगा, और अपने इष्ट स्थान में नहीं पहुंचेगा। इसलिये रथ उसके घोडे तथा उसका सारथी सबका सब अच्छा शिक्षित और संयम शील चाहिये। तभी उसमें बैठने वाला भी गंतव्य स्थान पर पंहुच सकता है।

शिक्षित घोडों वाला रथ-
(६) जो विज्ञान वान होता है, जिस का मन संयम शील होता है, उसकी इन्द्रियां उसके वश में रहती हैं, जैसे उत्तम शिक्षित घोडे सारथ के वश में रहते हैं। जिस रथी वीर के पास उत्तम रथ है, जिसका सारथी वडा चतुर है, और जिस रथ को शिक्षित तथा वश में रहने वाले घोडे चलाते हैं, वह रथ इष्ट स्थान में रथी वीर को पंहुचा देता है। इस से स्वामी को आनन्द मिलता है। यही बात और विस्तार से आगे बताते हैं-
(७) जो (अविज्ञानवान् भवति) जो विज्ञान से युक्त नहीं है, मन का संयमी नहीं है, और (सदा अशुचि) हमेशा अपवित्र आचरण करता है, वह उस श्रेष्ठ पद को प्राप्त नहीं कर सकता, और अनेक सांसारिक दुःखों को प्राप्त करता है।
(८) जो विज्ञान प्राप्त करता है, ( समनस्कः ) मन से संयमी होता है, और सदा पवित्र आचरण करता है, वह उस श्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है, जहां से उसे बारंबार दुःख भोगना नहीं पडता।
(९) जिसकी बुद्धि विज्ञान वती होती है, और ऐसी बुद्धि जिसकी सारथी होती है, तथा मन की लगाम जिसने हाथ में पकडी होती है, वह ऐसे रथमें बैठकर अच्छी तरह मार्गके पार होता है और विष्णुके परम पदको प्राप्त करता है ।
शिक्षित घोंडों वाला रथ।

मन्त्र ३ से ९ तक के सात श्लोकों में जो उपदेश किया है उसका अर्थ यह है कि शरीर रथ है, उसमें इंद्रियों के घोडे जोते रहते हैं, इस रथ का सारथी बुद्धि है, और मन लगाम! घोडों के साथ लगे हैं। इस रथ में आत्मा यह वीर है, इस रथ का स्वामी है। इस उपमा का अर्थ यह है कि यदि आत्मा का प्रवास सुख से होना चाहिये और उसने विष्णु पद तक पहुंचना है, तब तो यह सिद्ध है कि शरीर रूपी रथ अच्छी अवस्था में होना चाहिये, रथ के सब उपकरण उत्तम अवस्था में होने चाहिये, टूटे-फूटे, कीेडे से खाये, या जंग चढे नहीं होने चाहिये। बुद्धि विज्ञान वती चाहिये, ज्ञान विज्ञान से संस्कार वती होनी चाहिये, मन उत्तम होना चाहिये, और स्वाधीन तथा संयमशील होना चाहिय, सब इंद्रियाँ अपने अधीन, शुभ संस्कार युक्त और संयम में रहने वाली होनी चाहियें। किसी तरह इनमें कोई दोष नहीं होना चाहिये। यदि ऐसा होगा तभी वह रथी वीर आत्मा विष्णु के परम पद को सुख से प्राप्त कर सकेगा। यदि इनमें दोष होंगे तो उसको न तो वह परमपद प्राप्त होगा, और ना ही मार्ग में सुख होगा।

भोगों में फंसना नहीं चाहिये यह सत्य है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर के स्वास्थ्य की ओर दुर्लक्ष्य हो। ऐसा कदापि नहीं होना चाहिये। (शरीर) इंद्रियाँ, मन, प्राण, बुद्धि का स्वास्थ्य उत्तम रहना चाहिये। ये हमारे साधन हैं, वे उत्तम अवस्था में रहने चाहिये। योग साधन इसी लिये है यह भूलना नहीं चाहिये। नीरोग शरीर, प्रसन्न मन, विज्ञानमयी बुद्धि, शिक्षित और स्वाधीन इंद्रियां होनी चाहिये! रहन सहन अच्छा होना चाहिये। रहने का घर, उसके बाहर का उद्यान, ग्राम, नगर राष्ट्र आदि सब ऐसा होना चाहिये कि जहां नीरोगता और प्रसन्नता रहती हो। यह सब उत्तम सुचारु राज्य व्यवस्था से ही हो सकता है। इन ७ उपदेषों ने वडा भारी उत्तरदायित्व मनुष्यों पर रखा है। इसी से तो इस भूमि पर स्वर्ग का निर्माण होना है। यह तो विना योग्य प्रबंधक के नहीं हो सकता।
(१०-११) इन्द्रियों से विषय श्रेष्ठ हैं, विषयों से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है, वुद्धि से महत्तत्त्व अर्थात् अहं प्रत्यय (मैं पेनका भाव) श्रेष्ठ है, महत्तत्त्व से अव्यक्त मूल प्रकृति श्रेष्ठ है, इस अव्यक्त मूल प्रकृति से परमात्मा श्रेष्ठ है। इस परमात्मा से और कुछ भी श्रेष्ट नहीं है। वह परिसीमा है, और वही श्रेष्ठ गति हैं। गीता ३।४२ में लग्भग यही वर्णन मिलता है, तथा अन्य स्थानों में उपनिषदों में तथा अन्य ग्रंथों में भी यही आता है। थोडा थोडा वर्णन में हेर फेर अवश्य है, पर वह शब्द का फेर है। अर्थ का हेर-फेर नहीं है।

– यहां १ इन्द्रिय। २ अर्थ, विषय। ३ मन। ४ वुद्धि। ५ महत्तत्त्व। ६ अव्यक्त प्रकृति। ७ परमपुरुष या परमात्मा ये सात उत्तरोत्तर महत्वपूर्ण गिनाये गये हैं। यहां जीवात्मा को पृथक् गणना नहीं की है। मनुष्य में जीवात्मा-परमात्मा की गणना हुई है। अथवा छाया प्रकाशवत् जीवात्मा-परमात्मा एक हीं के रूप माने गये हैं। यहां सबको का प्राप्त करने वाला मनुष्य ही है, यही पराकाष्टा, परा गति, परमगति है। इसको प्राप्त करने के लिये शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि ये सब स्वस्थ होने चाहिये। बाहर के विषय भी अच्छी अवस्था में होने चाहिये। वे कैसे भी रहे तो कार्य ठीक नहीं होगा। देखिये जिव्हा इंद्रिय है, उसका विषय रस (स्वाद) है। यह रस निर्दाेष पवित्र शुद्ध और निर्मल रहना चाहिये। यदि रस औ रसना सदोष हुआ तो उससे अनेक रोग होंगे। इसी तरह अन्यान्य विषयों के संबंध के विषय में सोचना चाहिये। इसका ताप्तर्य यह है कि संयम रखना है, विषयों को अपने आधीन रखना चाहिये। इसका आशय यह नहीं कि इस जगत के विषय का अपना कर्तव्य ही भूलना है। साधक का उत्तरदायित्व क्या है! यह यहां बताया है ।
(१२) यह परमात्मा एक है, और वह एक होता हुआ (सर्वेषु भूतेषु गूढः) सब भूतों में व्याप्त है, परंतु (न प्रकाशते) दिखाई नहीं देता है। वह सूक्ष्म बुद्धिज्ञान से दीखाई देता है। सूक्ष्मदर्शी लोग अपनी सूक्ष्म बुद्धि से इसे देखते हैं। स्थूल बुद्धि के लोगों को यह नहीं दखिता। सबको इसके देखने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। योग-साधना का मार्ग बुद्धी सूक्ष्म करने के लिये ही है। इसके साधन से बहुत लोगों को यह दीख सकेगा।
(१३) साधक वाणी का संयम मन से करे, मन को संयमित करके ज्ञानात्मा अर्थात् बुद्धि में स्थिर करे। बुद्धि का संयम करके उसको मह-त्तत्त्व में स्थिर करे, और उसका शान्त आत्मा में संयम करे । १ वाणी। २ मन। ३ ज्ञानात्मा, विज्ञानमयी बुद्धि। ४ मह-त्तत्त्व, महान आत्मा। और ५ शान्त आत्मा। यह क्रम संयम का यहां दिया है। वाणी आदि इंद्रियों का मन से सयंम, मन का विज्ञानमयी बुद्धि से संयम, वुद्धि का अहं प्रत्यय से अथवा मह-त्तत्त्व से संयम, और अहं प्रत्यय का परमात्मा से संयम करना चाहिये । जो तत्त्व उच्च है उस से निम्न श्रेणी के तत्त्व का संयम करना चाहिये। यह साधना मार्ग है। बुद्धि से मन का संयम, इस तरह ज्ञान प्राप्ति का मार्ग निश्चित करना चाहिये ।

उठो जागो ! ज्ञान प्राप्त करो –
(१४) ( उतिष्ठत, जाग्रत ) उठो, जागो ! श्रेष्ठ ज्ञानियों के पास से ज्ञान प्राप्त करो। विना ज्ञान के संसार में कुछ भी साध्य नहीं है, इसलिए उठो जागो ! और ज्ञान प्राप्त करो- यह आत्म ज्ञान का और आत्मोन्नति का मार्ग (तत् दुर्गमं पथः) बडा कठिन और विकट मार्ग है। जिस तरह तलवार की तीक्ष्ण धारा पर चलना कठिन है, वैसा यह मार्ग कठिन है। सब ज्ञानी इस मार्ग का ऐसा ही वर्णन करते आये हैं। यहां पथी को ठीक तरह संभलना चाहिये। थोडा सा अपथ्य हुआ तो, भटक जाता है। सदा सावधान रहना चाहिये। उठो और जागते रहो, यहां सोने से कार्य नहीं बनेगा ।
( १५ ) यह ‘‘ब्रह्म’’ शब्द से वर्णन न होने वाला, तथा स्पर्श से जिसका ज्ञान नहीं हो सकता, (अरूपं अव्ययं) जिसका कोई रूप नहीं है, और जिसका व्यय नहीं होता, अर्थात् जिसमें न्यूनाधिकता नहीं होती, जो रस और गंध से रहित है, अर्थात् इसका रस मनुष्य की जिव्हा नहीं ले सकती और इसकी कोई गन्ध नहीं है, जो नासिका सेे सूंघा नहीं जा सकता है, अर्थात् पंच ज्ञानेंद्रियों से इसका ग्रहण नहीं हो सकता। आदि तथा अन्त जिसके नहीं हैं, जो मह-त्तत्त्व के परे है, और जो वहां निश्चल है। इस आत्मा का साक्षात्कार करने से साधक मृत्यु से मुक्त हो जाता है। इस आत्मा का ग्रहण किसी भी एक इंद्रिय से नहीं हो सकता। ऐसा यह अग्राह्य है, परंतु सबसे जो अनुभव से ज्ञात होता है वही एक आत्मा है। किसी एक इंद्रिय से संपूर्णतया आत्मा का ग्रहण नहीं होता, परंतु सब से जो अनुभूति होती है वह आत्मा की अनुभूति है।
– यहां यम के द्वारा एक उदाहरण दिया गया है। एक हाथी था, उसको देखने के लिये पांच अन्धे गये, जिसने पांव देखा उसने कहा कि हाथी खंबे जैसा है, दूसरा कान को स्पर्श करके कहने लगा कि हाथी छज जैसा है, तीसरा दुम को पकडकर कहने लगा कि हाथी संवल जैसा है, चौथा पेट को स्पर्श करके कहने लगा कि यह कपास की बोरी जैसा है और पांचवा सोंड को स्पर्श करके कहने लगा कि यह अजगर जैसा है। पांचों का अनुभव सत्य था, परंतु वह अपूर्ण था। पांचों के अनुभव एक स्थान पर मिलाने से सच अनुभव एकत्र किये जांयें तो वह हाथी ही होगा। इसी तरह इंद्रियाँ जिसका अनुभव कर रहीं हैं, वह विश्वरूप आत्मा ही है, जो सब भूतों में है, और जिसके कारण सब भूत यथा स्थान रहे है। यह वचन कठोपनिषद् के हैं।
परंतु एक एक इंद्रि जो अनुभव ले रहा है, वह उसके एक अंश का अनुभव है, संपूर्ण का नहीं। सबका अनुभव मिलकर अनुभव यदि लिया जाय, अर्थात् सब इंद्रियों, मन, बुद्धि आदि का भी जो सब अनुभव है, वह अनुभव इकठ्ठा किया जाय तो वह विश्वरूप आत्मा का ही अनुभव है। क्योंकि यहां अलग कुछ भी नहीं है। (कठोपनिषद श्लोक २११/९-१०)
सब एक ही वस्तु है, अर्थात् जो अहं एक वस्तु है, वही आत्मा है, और उसी का अनुभव अंशतः इंद्रियाँ लेती हैं। संपूर्णतया नहीं ले सकती क्योंकि उनमें वह शक्ति नहीं है। इसका भावार्थ यह हुआ कि यह आत्मा केवल शब्द ही नहीं, केवल स्पर्श ही नहीं, केवल रूप ही नहीं, केवल रस ही नहीं, केवल गन्ध ही नही। अनुभव इन्हीं का है, पर सब मिलाकर है।
मनुष्य के शरीर को दायी और बायी बाजू होती है। केवल दायी बाजू उसका शरीर नहीं हो सकता, और कवेल बायी बाजू भी उसका शरीर नहीं होता। शरीर तो दायी बाजू से भी अधिक है, और केवल बायी बाजू से भी अधिक और श्रेष्ठ है। अर्थात् दायी और बायी बाजू मिलकर जो होता है, वह किसी एक बाजू से अधिक श्रेष्ठ है। इसी तरह जो सब कुछ है, अनुभूति का अखण्ड विषय है, वह किसी एक इंद्रिय के अनुभव से श्रेष्ठ है। इसका सत्यज्ञान होने से मृत्यु का भय दूर हो जाता है। क्योंकि खण्ड भाव से मृत्यु होती है, अखण्ड सत्ता होने पर वहां मृत्यु ही नहीं होती ! अतः इस के ज्ञान से मृत्यु भय दूर हो जाता है।
(१६) यह मृत्यु का उपदेश नाचिकेता उपाख्यान सुनने से मनुष्य बुद्धिमान होता है, और ब्रह्मलोक में महत्व को प्राप्त करता है ।
(१७) जो ब्राह्मणों की सभा में इस गुह्य ज्ञान का प्रवचन करेगा, अथवा श्राद्ध समय में इस का विवरण करेगा वह अनंत तत्व को प्राप्त होगा, मुक्ति को प्राप्त होगा। अनन्त होने का नाम ही मुक्ति है।
–यहां प्रथम अध्याय, तृतीय वल्ली समाप्त।

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Dr.R.B.Dhawan (Guruji), Multiple times awarded Best Astrologer with 33+ years of Astrological Experience. प्रथम अध्याय, तृतीय वल्ली- ( १ ) जो पंचाग्नि साधन करनेवाले, पंच प्राणरूप पंच अग्नियों की प्राणायाम द्वारा साधना करने वाले कर्मयोगी हैं, तथा जो नाचिकेत अग्नि (जो बुद्धि में रहता है) को माता-पिता और आचार्य द्वारा प्रदीप्त करने वाले ज्ञानयोगी हैं,…